पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३११

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रामभक्ति शाखा - ३१३ दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था और दोनों में ही संस्कृत की छटा उनकी कृतियों में दर्शनीय हुई है। छंदो और श्रीलंकारों का समा- वेश भी पूरी सफलता के साथ किया गया है। साहित्यिक दृष्टि से रामचरितमानस के जोड़ का दूसरा ग्रंथ हिंदी में नहीं देख पड़ता। क्या प्रबंध-कल्पना, क्या संबंध निर्वाह, फ्या वस्तु एवं भावव्यंजना, सभी उच्च कोटि को हुई है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय मिलता है और प्रकृति-वर्णन में हिंदी के कवि उनकी घरोघरी नहीं कर सकते। अंतिम प्रश्न संस्कृति का है। गोस्वामीजी ने देश के परंपरागत विचारों और प्रादों को बहुत अध्ययन करके ग्रहण किया है और घड़ी सावधानी से उनकी रक्षा की है। उनके प्रथ आज जो देश की इतनी प्रसस्य जनता के लिये धर्मग्रंथ का काम दे रहे हैं, उसका कारण यही है। गोस्वामीजी हिंदू जाति, हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति को अक्षुण्ण रखनेवाले हमारे प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी यशः प्रशस्ति अमिट अक्षरों में प्रत्येक हिंदी भाषा-भापी के हृदयपटल पर अनंत काल तक अंकित रहेगी, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। भारतीय समाज फी संस्कृति और प्राचीन शान की रक्षा के लिये गोस्वामीजी का कार्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। किंतु गोस्वामीजी परंपरा-रक्षा के लिये ही एकमात्र यत्नवान् न थे। वे समय की स्थितियों और आवश्यकताओं को भी समझते थे तथा समाज को नवीन दिशा की ओर अग्रसर करने के प्रयास भी उन्होंने किए। आचार-संबंधिनी जितनी शुद्धि और परि- कार उन्होंने किया वह सब जातीय जीवन को दृढ़ करने में सहायक घना। यह तो नहीं कहा जा सकता कि तुलसीदासजी परंपरा या रूढ़ियों के बंधन से सर्वथा मुक्त थे तथापि संस्कृति की रक्षा और उन्न- यन के लिये उन्होंने जो महान कार्य किया उसमें इस बंधन का कुप्रभाव नगरपसा है। उनके गुणे का विशाल ऋण हिंदू समाज पर है और चिर- दिन तक रहेगा। इस अकाट्य सत्य को कौन अस्वीकार कर सकता है। यह एक साधारण नियम है कि साहित्य के विकास की परंपरा क्रमवद्ध होती है। इसमें कार्य-कारण का संबंध प्रायः हूँढा और पाया जाता है। एक कालविशेप के कवियों को यदि हम फल-स्वरूप मान लें, तो उनके उत्तरवर्ती ग्रंथकारों को फूल-स्वरूप मानना होगा। फिर ये फूल-स्वरूप ग्रंथकार समय पाकर अपने पूर्ववर्ती ग्रंथकारों के फल- स्वरूप और उत्तरवर्ती ग्रंथकारों के फूल-स्वरूप होंगे। इस प्रकार यह माम सर्चधा चला चलेगा और समस्त साहित्य एक लड़ी के समान होगा जिसकी भिन्न भिन्न कड़ियाँ उस साहित्य के काव्यकार होंगे। इस ४०