पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१२

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३१४ हिंदी साहित्य सिद्धांत को सामने रसकर यदि हम तुलसीदासजी के संबंध में विचार करते हैं, तो हमें पूर्ववर्ती काव्यकारों की कृतियों का क्रमशः विकसित रूप तो तुलसीदासजी में देस पड़ता है, पर उनके पश्चात् यह विकास श्रागे बढ़ता हुश्रा नहीं जान पड़ता। ऐसा मास होने लगता है कि तुलसीदासजी में हिंदी साहित्य का पूर्ण विकास संपन्न हो गया और उनके अनंतर फिर क्रमोन्नत विकास की परंपरा बंद हो गई तथा उसकी प्रगति हास की ओर उन्मुख हुई। सच यात तो यह है कि गोस्वामी तुलसीदासजी में हिंदी कविता की जो सर्वतोमुसी उन्नति हुई, वह उनकी कृतियों में चरम सीमा तक पहुँच गई, उसके भागे फिर कुछ करने को नहीं रह गया। इसमें गोस्वामीजी की उत्कृष्ट योग्यता और प्रतिभा देख पड़ती है। गोस्वामीजी के पीछे उनकी नकल करनेवाले तो बहुत हुए, पर ऐसा एक भी न था जो उनसे बढकर हो या कम से कम उनकी समकक्षता कर सकता हो। हिंदी कविता के फीर्तिमंदिर में गोस्वामीजी का स्थान सबसे ऊँचा और सबसे विशिष्ट है। गो- स्वामीजी के काव्य में रामभक्ति की परंपरा और उसका उत्कर्ष पराकाष्टा पर पहुंच गया है। उनके पश्चात् यह रामभक्ति की धारा उतनी प्रशस्त नहीं रह गई। कविता के क्षेत्र में तो वह क्षीण ही होती चली गई। तुलसीदासजी के पश्चात् रामभक्ति में सांप्रदायिकता की मात्रा बढी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। इस सांप्रदायिकता से तुलसी- दासजी के काव्य का प्रचार तो बहुत हुश्रा पर परवर्ती फवियों के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध हो गया। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, रामभक्ति की कविता गोस्वामी तुलसीदासजी की कृतियों से इतनी ऊँची उठ गई कि उनके पीछे के राम- नाभा . मक्त कवियों की अधिक प्रसिद्धि न हो सकी। गोस्वामीजी के श्रालोक के सामने चे फीके देख पड़ते हैं। फिर भी उनके समकालीन भक्त ताभादासजी रामभक्ति के एक उल्लेखयोग्य कवि हैं। नाभादासजी का "भक्तमाल" भक्तों का प्रिय ग्रंथ रहा है और नव भी है। उसमें सांप्रदायिक विभेद का परित्याग कर अनेक महात्माओं की जीवनी और कीर्ति की प्रशस्ति लिखी गई है। इस रचना में संक्षिप्त सूत्रशैली का व्यवहार किया गया है जिससे अर्थ समझने में बड़ी कठिनाई होती है। प्रियादास नामक संत ने भकमाल की टीका लिखकर इस कठिनाई को दूर करने की सफल चेष्टा की है। प्रियादास नामाजी के सौ वर्ष उपरांत हुए थे, फिर भी उन्होंने टीका बड़ी प्रामाणिक रीति से लिखी है।