पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१५

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नवा अध्याय . कृष्णभक्ति शाखा . भारतीय महापुरुषों के संबंध में यह यात विशेषतः सत्य है कि वे अपने जीवनकाल में तो साधारण यश तथा प्रसिद्धि पाते हैं, पर कुछ प्णभक्ति की उत्पत्ति समय के उपरांत उनमें ईश्वर की फलाओं का सग्नि- "वेश माना जाता और उनकी उपासना की जाती पाप है। वाल्मीकि के मूलग्नंथ में राम एक शक्तिशाली नृपति के रूप में अंकित किए गए हैं, ईश्वर के अवतार के रूप में नहीं । परंतु उसी ग्रंथ के उत्तरकालीन अंश में ही राम भगवान् विष्णु के अंशा- घतार स्वीकृत किए गए हैं, और उनमें देवत्व की पूर्ण प्रतिष्ठा की गई है। इसके उपरांत रामभक्ति का विकास होता गया और अंत में रामोपासक संप्रदाय का श्राविर्भाव हुआ। इस सांप्रदायिक रूप में तो राम का स्थान सब देवताओं से ही नहीं, स्वयं विष्णु से भी बढ़कर माना गया है। यही नहीं, कबीर आदि के राम तो निगुण और सगुण से भी परे परब्रह्म कहे गए हैं। तुलसी आदि उदारहृदय, समन्वयवादी संत भी राम को सर्वव्यापक और सर्वज्ञ बतलाते हैं। राम जिनके इष्टदेव हे, उनके लिये वे ही सब कुछ है, उनके लिये सब जग ही सियाराममय · है। कृष्ण की उपासना का भी इसी प्रकार विकास हुआ है। महा- भारत के प्रारंभिक पर्यो में वे अवतार नहीं बने, पर भगवद्गीता में उनको अवतारणा भगवान् कृष्ण के रूप में हुई जो ईश्वर की संपूर्ण कलाओं को लेकर नरलीला करने तथा संसार का भार उतारने आए थे। पर गीता में कृष्ण को सांप्रदायिक रूप नहीं मिला। भागवत पुराण में कृष्णमक्ति दृढ़ हो गई है। उसके उपरांत तो कृष्णभक्ति के अनेक संप्रदायचले जिनमें भगवान कृष्ण के विभिन्न रूपों की उपासना होने लगी। कृष्णोपासना के उन अनेक संप्रदायों के उल्लेख से यहाँ प्रयोजन नहीं जिनका हिंदी साहित्य से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। हम तो हिंदी साहित्य की कृष्णभक्ति शाखा का विवरण ही यहां देंगे और उन कृष्ण- भक्त कवियों का उल्लेख करेंगे जिनसे हिंदी की श्रीवृद्धि हुई है। परंतु हिंदी के सभी कृष्णभक्त कवि एक ही संप्रदाय के नहीं थे, अतएव उन्होंने विभिन्न रूपों में कृष्ण की उपासना की और उनकी स्तुति में अपनी वाणी