पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१६

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२१८ , हिंदी साहित्य का उपयोग किया। जब हम कालक्रमानुसार हिंदी के कृष्णोपासक कवियों पर दृष्टि डालते हैं, तब उनमें कितने ही भेद पाते हैं। भेद का कारण जहाँ वैयक्तिक रुचि, अथवा प्रतिभा श्रादि है, वहाँ संप्रदाय-भेद भी है। उदाहरणार्थ विद्यापति और मीराबाई की रचनाओं तथा सूरदास श्रादि नछाप के कवियों को कृतियों में बहुत कुछ ऐसी विभिन्नता है. जिसका कारण सांप्रदायिक मतों की विभिन्नता है। इसी प्रकार स्वामी हरिदास श्रीर महात्मा हितहरिवंशजी में भी संप्रदाय-भेद के कारण अंतर देख पड़ता है। उनकी वाणी न तो श्रापस में ही मिलती है और न सूर श्रादि की वाणी से ही उसका मेल मिलता है। विभेद के कारणों का अनुसंधान करने पर यह पता लगता है कि विद्यापति और मीरा पर विष्णु स्वामी तथा नियार्क मतों का अधिक प्रभाव था और सूरदास श्रादि अष्टछाप के कवि यलमाचार्य के मतानुयायी थे। इसी प्रकार स्वामी हरिदास निघायचार्य के टट्टी संप्रदाय के थे, और हितहरिवंशजी ने राधा फी भक्ति को प्रधानता देकर नवीन मत का सृजन किया था। ऐसे ही अन्य विभेद भी हैं। यहाँ हम कृष्णभक्ति के कचियों पर लिखते हुए संक्षेप में उन संप्रदायों का उल्लेख करेंगे जिनके मतों और सिद्धांतों फा उन पर प्रभाव पड़ा था। (शंकर के अद्वैतवाद में भक्ति के लिये जगह न थी, यह हम पहले ही कह चुके हैं। शंकर के उपरांत स्वामी रामानुजाचार्य ने जिस विद्यापति और मीरा . विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया था, वह भी - भकि के बहुत उपयुक्त न था। इसी समय के लगभग प्रणीत भागवत पुराण में भक्ति का दृढ़ मार्ग निरूपित हुआ और मध्वाचार्य ने पहले पहल तिमत का सृजन कर भक्त और भगवान् के संबंध को सिद्ध किया। मध्वाचार्य दक्षिण में उदीची नामक स्थान के रहनेवाले थे। उन्होंने पहले तो शांकर मत की शिक्षा पाई थी, पर पीछे महामारत तथा भागवत पुराण का अध्ययन किया था। भागवत पुराण के अध्ययन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और ये शंकर के ज्ञान- मार्ग के विरोधी और भक्ति के समर्थक यन गए। उत्तर भारत में उनके सिद्धांतों का प्रत्यक्ष में तो अधिक प्रभाव नहीं पड़ा, पर अनेक संप्रदाय उनके उपदेशों का आधार लेकर दक्षिण में खड़े हुए और देश के विस्तृत भूभागों में फैले। हिंदी के कृष्णभक्त कवियों में विद्यापति पर माथ्व संप्रदाय का ऋण स्वीकार करना पड़ता है। परंतु विद्यापति पर माध्व संप्रदाय का ही ऋण नहीं है, उन्होंने विष्णु स्वामी तथा निवार्काचार्य के मतों को भी ग्रहण किया था। न तो