पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१६ कृष्णभक्ति शाखा भागवत पुराण में ही और न माध्न मत में ही, राधा का उल्लेख किया गया है। कृपण के साथ विहार करनेवाली अनेक गोपियों में राधा भी हो सकती हैं, पर कृष्ण की चिर-प्रेयसी के रूप में वे नहीं देख पड़तीं। उन्हें यह रूप विष्णु स्वामी तथा निबार्क संप्रदायों में ही पहले पहल प्राप्त हुश्रा था। विष्णु स्वामी मध्वाचार्य की ही भांति द्वैतवादी थे। भक्त- माल के अनुसार चे प्रसिद्ध मराठा भक्त ज्ञानेश्वर के गुरु और शिक्षक थे। राधाकृष्ण की सम्मिलित उपासना इनकी भक्ति का नियम था। विष्णु स्वामी के ही समकालीन निवार्क नामक तैलंग ब्राह्मण का श्रावि- र्भाव हुश्रा, जिन्होंने वृंदावन में निवास कर गोपाल कृष्ण की भक्ति की थी। निचार्क ने विष्णु स्वामी से भी अधिक दृढ़ता से राधा की प्रतिष्ठा की और उन्हें अपने प्रियतम कृष्ण के साथ गोलोक में चिर निवास करनेवाली कहा। राधा का यही चरम उत्कर्ष है। विद्यापति ने राधा और कृष्ण की प्रेमलीला का जो विशद वर्णन किया है, उस पर विष्णु स्वामी तथा नियार्क मतों का प्रभाव प्रत्यक्ष है। विद्यापति राधा और कृपण के संयोगशृंगार का ही विशेषतः वर्णन करते हैं। उसमें कहीं फहीं अश्लीलत्व भी पा गया है, पर अधिकांश स्थलों में प्रिया राधा का प्रियतम कृष्ण के साथ बड़ा ही सात्त्विक और रसपूर्ण सम्मिलन प्रदर्शित किया गया है। बंगाल के चंडीदास श्रादि कृष्णभक कवियों ने भी राधा की प्रधानता स्वीकार की है। हिंदी को प्रसिद्ध भक्त और कवयित्री मीराबाई के प्रसिद्ध पद "मेरे.तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोई" में गोपाल कृष्ण का स्मरण है जो निंबार्क संप्रदाय के प्रचलन के अनुसार है। मीराबाई के अनेक पदों में जो तन्मयता देस पड़ती है, वह वास्तव में प्रेमातिरेक के कारण है और निस्संदेह सात्विक है। विद्यापति और मीराबाई पर विष्णु स्वामी तथा निवार्क मतों की छाप थी। विप्णु स्वामी सिद्धांतों में मध्वाचार्य के श्रार निवार्क स्वामी रामानुज के अनुयायी थे। विद्यापति श्रीर मीरा के उपरांत कृष्णभक्ति के प्रसिद्ध अष्टछाप के कवियों का उदय हुश्रा। अष्टछाप में पाठ कवि सम्मिलित थे। ये वल्लभाचार्य के मतानुयायी थे और उन्हीं के पुत्र . अछाप और आचार्य आचाप तथा उत्तराधिकारी विट्ठलनाथजी द्वारा संघटित वल्लभ किए गए थे। गोसाई विट्ठलनाथ ने अपने पिता श्राचार्य वल्लम के उपदेशानुसार अत्यंत सरल तथा मधुर वाणी में भगवान् कृष्ण का यशोगान करनेवाले पाठ सर्वोत्तम कवियों को चुनकर अष्टछाप संप्रदाय की प्रतिष्ठा की थी। अष्टछाप में सूरदास, कुंभनदास, परमा-