पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१८

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३२० हिंदी साहित्य नंददास, कृष्णदास,छीत स्वामी,गोविंदस्वामी,चतुर्भुजदास और नंददाल सम्मिलित थे जिनमें पहले चार स्वयं प्राचार्य बल्लभ के शिष्य थे और पिछले चार उनके पुत्र के। नीचे हम वल्लभाचार्य के जीवन तथा मत का संक्षिप्त विवरण देते हैं, क्योंकि अष्टछाप के कवियों से परिचित होने के लिये इसकी आवश्यकता है। . स्वामी वल्लभाचार्य का जन्म काशी के एक तैलंग ब्राह्मण के घर मे संवत् १५३५ में हुया था। इनके पिता विष्णु स्वामी संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्हें काशी में शास्त्रीय शिक्षा मिली थी। ये संस्कृत के पंडित होकर पड़े शास्त्रार्थी बन गए थे और विशेषतः स्मातों का खंडन किया करते थे। यल्लमाचार्य ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया था तथा भाप्य आदि लिखे थे। “वेदांतसूत्र अनुभाप्य", भागवत की सुबोधिनी टीका तथा "तत्त्व-दीप निबंध", इनकी प्रधान कृतियाँ है। ये सव ग्रंथ इन्होंने संस्कृत में लिखे थे, हिंदी में नहीं। इनके मतानुयायियों में गिरिधर तथा पालकृष्ण भट्ट संस्कृत के पंडित थे जिन्होंने पुस्तकें लिखकर इनके सिद्धांतों का प्रचार किया था। गोस्वामी श्री पुरुषोत्तमजी भी इनकी शिष्य परंपरा में अच्छे संस्कृतश और विद्वान् हो गए हैं। यद्यपि वल्लभाचार्य अपने को अग्नि का अवतार मानते थे और स्वयं कृष्ण को ही अपना गुरु स्वीकार करते थे, पर उनके पिता के विपशु- स्वामी-मत तथा निंयार्क संप्रदाय का उन पर विशेष प्रभाव लक्षित होता है। कृष्ण को परब्रह्म तथा राधा को उनकी चिरप्रणयिनी मानकर उनकी उपासना करना निवार्क संप्रदाय के फल-स्वरूप ही समझना चाहिए। इनके दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद कहलाए, जिनमें एक ओर तो रामानुज की विशिष्टता दूर की गई है और दूसरो और शंकर का मायावाद अस्वीकृत किया गया। शंकर के शान के बदले ये भक्ति को ग्रहण करते हैं और भक्ति ही साधन तथा साध्य भी बतलाई जाती है। भक्ति ज्ञान से बढ़कर है क्योंकि वह ईश्वर की कृपा से मिलती है। ईश्वर को दया के लिये पुष्टि शब्द का व्यवहार किया गया है जो भागवत के आधार पर है। इसी लिये बल्लभाचार्य का भक्तिमार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता है। पुष्टिमार्ग के अनुसार कृष्ण ही ब्रह्म है जो सत् चित् और पानंद. स्वरूप है। जिस प्रकार अग्नि से चिनगारियां निकलती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से जीव और जगत् निकलते हैं। ये उससे भिन्न नहीं हैं। अंतर इतना ही है कि जीव आनंद को खोकर केवल सत् श्रार चित् को अंशतः