पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३१९

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३२१ कृष्णभक्ति शाखा धारण किए रहता है, मुक्त होकर जीव श्रानंदस्वरूप हो जाता है और कृष्ण के साथ चिरकाल तक एकाकार होकर रहता है। स्वर्गीय वृंदा- वन हो, जहाँ राधा और कृष्ण चिरंतन विहार करते हैं, भक्तों का आधार और लक्ष्य है। शंकर के अनुसार वल्लभाचार्य जगत् को मिथ्या नहीं मानते। माया भी ब्रह्म की ही शक्ति है, अतः यह मायात्मक जगत् मिथ्या नहीं है। हाँ, माया में फंसे रहने के कारण जीव अपना शुद्ध स्वरूप नहीं पहचान सकता। जय ईश्वर का अनुग्रह होता है तब जीव माया से मुक्त होकर अपना शुद्ध स्वरूप पहचानता है और तब वह भी सत्, चित् श्रार आनंद-स्वरूप हो जाता है। ____ ऊपर जिन दार्शनिक सिद्धांतों का विवरण दिया गया है उनके अतिरिक्त महात्मा बल्लभाचार्य ने कुछ व्यावहारिक नियम भी प्रचलित किए थे जिनका उनके संप्रदाय में अब तक पालन होता है। इन व्यावहारिक नियमों में सबसे अधिक उल्लेखनीय गुरु-शिप्य-संबंध है जिसका आगे चलकर बड़ा अनिष्टकर परिणाम हुश्रा। घल्लभाचार्य की शिष्यपरंपरा में यह नियम है कि गुरु की गद्दी का उत्तराधिकारी प्रत्येक शिप्य नहीं हो सकता, गुरु का पुत्र ही हो सकता है। गोसाई विट्ठल- नाथ भी इसी नियम के अनुसार गद्दी के उत्तराधिकारी हुए थे। आगे चलकर अयोग्य व्यक्तियों को भी गद्दी का अधिकार मिलने लगा; क्योंकि योग्य पिता को सदैव योग्य संतान नहीं हुआ करती। परंतु इन अयोग्य गुरुयों की पूजा घरावर उतनी ही विधिपूर्वक होती रही जितनी स्वयं कृष्ण की। इसका परिणाम अच्छा नहीं हुमा। गुरु धर्मोपदेशक और साधु न बनकर धनलोलुप तथा विलासप्रिय यन बैठे। उनका वैभव' इतना बढ़ा कि वे राजाओं की भांति संपतिशाली हो गए और महाराज को उपाधि भी उन्होंने धारण कर ली। महाराज मंदिर के सर्वेसर्वा होते हैं। भक्तजन उनको प्रसाद-प्राप्ति के लिये बड़ी बड़ी रकम दान करते हैं। धीरे धीरे भक्त भी चे हो होने लगे जो विशेष धनवान हों। इससे राधा-कृष्ण के स्वर्गीय प्रेम को लौकिक विलास-वासना का रूप मिला और संप्रदाय अधःपतित हो गया। श्राजकल वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी अधिकतर गुजरात तथा राजपुताने के धनी वनिए आदि हैं। बड़े बड़े नगरों में उनकी रास- मंडलियां हैं जिनमें कृष्ण के रासमंडल का अनुकरण किया जाता है। इन मंडलियों में वास्तविक भक्त बहुत थोड़े और विलासी धनिक अधिक होते हैं। जिस प्रकार हिंदी साहित्य में सूर श्रादि की वाणी की पोट