पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३२

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श्राधुनिक भाषाएँ शब्दों का विशेष व्यवहार होता है वह हिंदी (अथवा योरोपीय विद्वानों की उच्च हिंदी) फही जाती है। इसी हिंदी में वर्तमान युग का साहित्य निर्मित हो रहा है। पढ़े लिखे हिंदू इसी का व्यवहार करते हैं। यही खड़ी बोली का साहित्यिक रूप हिंदी के नाम से राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर बिठाया जा रहा है। जव वही खड़ी बोली फारसी-अरवी के तत्सम और अर्धतत्सम शब्दों को इतना अपना लेती है कि कभी कभी उसकी वाक्य-रचना पर द भी कुछ विदेशी रंग चढ़ जाता है तब उसे उर्दू कहते हैं। यही उर्दू भारत के मुसलमानों की साहित्यिक भाषा है। इस उर्दू के भी दो रूप देखे जाते हैं। एक दिल्ली लखनऊ आदि की तत्सम-बहुला कठिन उर्दू और दूसरी हैदराबाद की सरल दक्खिनी उर्दू (अथवा हिंदुस्तानी)। इस प्रकार भापा-वैज्ञानिक दृष्टि में हिंदी और उर्दू खड़ी बोली के दो साहित्यिक रूप मान हैं। एक का ढांचा भारतीय परंपरागत प्राप्त है और दूसरी को फारसी का आधार बनाकर विकसित किया जा रहा है। खड़ी वोली का एक रूप और होता है जिसे न तो शुद्ध साहि- त्यिक ही कह सकते हैं और न ठेठ वोलचाल की वोली ही कह सकते दिलाती है। यह है हिंदुस्तानी-विशाल हिंदी प्रांत के " लोगों की परिमार्जित वोली। इसमें तत्सम शब्दों का व्यवहार कम होता है पर नित्य व्यवहार के शब्द देशी-विदेशी सभी काम में श्राते हैं। संस्कृत, फारसी, अरवी के अतिरिक्त अँगरेजी ने भी हिंदुस्तानी में स्थान पा लिया है। इसी से एक विद्वान् ने लिखा है कि "पुरानी हिंदी, उर्दू और अँगरेजी के मिश्रण से जो एक नई जवान श्राप से श्राप बन गई है वह हिंदुस्तानी के नाम से मशहूर है।" यह उद्धरण भी हिंदुस्तानी का अच्छा नमूना है। यह भापा अभी तक वोल-चाल की बोली ही है। इसमें कोई साहित्य नहीं है। किस्से, गजल,भजन आदि की भाषा को, यदि चाहें तो, हिंदुस्तानी का ही एक रूप कह सकते हैं। आजकल कुछ लोग हिंदुस्तानी को साहित्य की भापा बनाने का यत्त कर रहे हैं, पर वर्तमान अवस्था में यह राष्ट्रीय वोली ही कही जा सकती है। उसकी उत्पत्ति का कारण भी परस्पर

  • हिंदुस्तानी का साहित्य के श्रासन पर विराजने की चेष्टा करना हिंदी

और उर्दू और दोनो के लिये अनिष्टकर सिद्ध हो सकता है। इसके प्रचार और विकास तथा साहित्योपयोगी होने से हिंदी उर्दू दोनों अपने प्राचीन