पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३२५

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कृष्णभक्ति शाखा ३२७ काव्य में प्राप्त होती है। पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से दोनों का समान अधिकार है। दोनों ही हमारे सर्वश्रेष्ठ जातीय कवि हैं। सूरदास के संबंध में कहे गए निम्नांकित दोहे को हम अनुचित नहीं समझते- सूर सूर तुलसी ससी उड़गन केशवदास । अब के कवि सद्योत सम जहें तहँ करत प्रकास ॥ अष्टछाप के अन्य कवियों में रासपंचाध्यायो, भ्रमरगीत श्रादि के रचयिता "सव कवि गढ़िया नंददास जड़िया" के लक्ष्य सुंदर अनुप्रास- अब मिश्रित संस्कृतभापामय पदावली का प्रणयन करने- - वाले सूरदास के ही समकालीन नंददासजी हुए जिन्होंने भागवत की कथा लेकर काव्यरचना की। इन्होंने अपने भ्रमरगीत में सगुणोपासना का समर्थन शास्त्रीय पद्धति पर और हार्दिक अनुभूति के आधार पर किया है। इनका भ्रमरगीत हिंदी का उत्कृष्ट विरह-काव्य है। इनके अतिरिक्त राधा-कृष्ण के प्रेम में मग्न सरस शृंगारिक रचना पर कृष्णदास, अपने पदों से प्राचार्य वल्लभ को भाव- मग्न करने की क्षमता रखनेवाले कन्नौज-निवासी परमानंददास, अकबर के निमंत्रण और सम्मान की परवा न करनेवाले सच्चे भक्त कुंभनदास, उनके पुत्र चतुर्भुजदास, प्रजभूमि और ब्रजेश की श्रोर अनन्य भाव से श्राकर्पित छीत स्वामी, गोवर्धन पर्वत पर कदव उपवन लगाकर निवास करनेवाले गायक गोविंद स्वामी श्रादि अष्टछाप के शेष कवि हैं। प्रत्येक ने भक्ति-भाव-संयुक कृष्ण की उपासना की और पूरी क्षमता से प्रेम और विरह के सुंदर गेय पद वनाए। सबकी वाणी में वह तन्मयता है जो गीत काव्य के लिये परम उपयोगिनी है। सरस भक्तिपूर्ण पदों का यह प्रवाह रुका नहीं, चलता ही रहा। श्रागे चलकर जव कृष्ण की उपा- सना में लौकिक विषय-वासनाएँ श्रा मिली, तव कविता अपने उच्चासन से गिरी और मनुप्य की भोग-वृत्तियों के परितोप का साधन बन गई। इसके लिये कुछ समालोचक इन भक्त कवियों पर दोपारोपण करते हैं। उनके मत में भक्त कवियों की रचनाओं में जो भंगारिकता है वहीं बीज बनकर हिंदी के पिछले समय की रचनाओं में व्याप्त हो गई। परंतु इसके लिये हम भक्त कवियों को दोपी नहीं ठहरा सकते। प्रत्येक सुंदर वस्तु का दुरुपयोग हो सकता है। पर इसके लिये सुंदर वस्तु की निंदा करना व्यर्थ है। पिछले खेवेकी गंदी रचनाओं का कारण तत्कालीन जनता की विलाल- “प्रिय मनोवृत्ति है, भक्तों की पूत वाणी नहीं। शुद्ध प्रेम का प्रवाह बहा- कर भगवान कृष्ण की स्तुति में आत्मविस्मरण कर देनेवाले भक्त कवियों का हिंदी कविता पर जो महान् ऋण है, उसे हम सभी स्वीकार करेंगे।