पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३२६

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३२८ हिंदी साहित्य प्रप्टछाप के बाहर रहकर भक्ति-काव्य की रचना करनेवालों में हितहरिवंश और स्वामी हरिदास विशेष रीति से उल्लेखनीय हैं, क्योंकि न ये दोनों ही उत्कृष्ट पदों के प्रणेता और नवीन संप्रदायों के स्रष्टा हुए। हितहरिवंशजी माधव दास, ससान पार निवार्क मतों से प्रभावित थे, पर उन्होंने राधा की उपासना को ग्रहण कर राधावल्लभी संप्रदाय का सृजन किया। उन्होंने "राधासुधानिधि" और "हित चौरासी" नामक दी पुस्तके लिखी जिनमें पहली संस्कृत में है। इसके अतिरिक्त उनके स्फुट पद भी मिलते हैं। इनके मतानुसार राधा रानी हैं, कृष्ण उनके दास है, राधा की उपासना से कृष्ण का प्रसाद मिल सकता है। "हित चौरासी" के सभी पद अत्यंत कोमल और सरस भावापन्न हैं। इनके शिष्यों में ध्रुवदास और व्यासजी प्रधान हुए, जिनकी रचनाओं से हिंदी की पर्याप्त श्रीवृद्धि हुई। . स्वामी हरिदास निवार्क मतानुयायी थे, पर उन्होंने अपना अलग संप्रदाय खोला जी टट्टी संप्रदाय कहलाया। ये प्रसिद्ध गायक और कवि थे। अकयरी दरवार के प्रख्यात गायक तानसेन के और स्वयं अकवर के ये सगीतगुरु कहे जाते हैं। इनकी रचनाश्राम संगीत की राग-रागिनियों का सुंदर समावेश हुआ है। कृष्णभक्त कधियों के इस श्रभ्युत्थान-काल में हम अत्यंत सरस पदों के रचयिता सच्चे प्रेममग्न कवि रसखान को नहीं भूल सकते, जो विधर्मी होते हुए भी ब्रज की अनुपम मधुरिमा पर मुग्ध और कृष्ण की ललित लीलाओं पर लटूथे। जाति-पांति के बंधनों के बहुत ऊपर जो शुद्ध प्रेम का सात्त्विक बंधन है, उसी में रसखान बंधे थे। उनकी रचनात्रों में ब्रजभापा का सरस और सानुप्रास प्रवाह मनोमुग्धकारी बन पड़ा है। हिंदी के मुसलमान कवियों में रसखान का स्थान बहुत ऊंचा है। जायसी श्रादि की भांति ये वाहर के मतों में लिप्त न रहकर भगवान कृष्ण की सगुणोपासना में लीन हुए। यह उनके उदार हृदय का परिचायक और तत्कालीन भक्तिप्रवाह के सर्वतोव्याप्त प्रसार का द्योतक है। कृष्ण-भक्ति की कविता इस काल के उपरांत कम हो चली। अकवर के सुख-समृद्धि-पूर्ण साम्राज्य में कृष्ण की भक्ति को फूलने फलने पीछे के कृष्ण-भक्त का अवसर मिला था। अकबर की धर्मनीति विशेष उदार थी; अतः उसके शासनकाल में विना किसी विन-याधा के अनेक धार्मिक संप्रदाय विकसित हुए थे। प्रत्येक संप्रदाय अपने इच्छानुसार उपासना कर सकता था और अपनी रुचि