पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३

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हिंदी भाषा विनिमय की इच्छा ही है। जिस प्रकार उर्दू के रूप में सडी बोलीने मुसल- मानों की मांग पूरी की है उसी प्रकार अंगरेजी शासन और शिक्षा की श्राय. श्यकतानों की पूर्ति करने के लिये हिंदुस्तानी चेष्टा कर रही है। वास्तय में हिंदुस्तानी' नाम के जन्मदाता अँगरेज आफिसर है। वे जिस साधा- रण वोली में साधारण लोगों से-साधारण पढ़े और पढ़े दोनों ढंग के लोगों से बातचीत और व्यवहार करते थे उसे हिंदुस्तानी कहने लगे। जय हिंदी और उर्दू साहित्य-सेवा में विशेष रूप से लग गई तव जो बोली जनता में यच रही है उसे हिंदुस्तानी कहा जाने लगा है। यदि हम चाहें तो हिंदुस्तानी को चाहे हिंदी का, चाहे उर्दू के बोलचाल का रूप फह सकते हैं। श्रत- हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी तीनों ही सड़ी बोली के रूपांतर मान है। साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि शास्त्रों में सड़ी बोली का अधिक प्रयोग एक प्रांतीय घोली के अर्थ में ही होता है। (२) योगरू-हिंदी की दूसरी विमापा यांगरू वोली है। यह यांगर अर्थात् पंजाय के दक्षिण-पूर्वी भाग की बोली है। देहली, कर- नाल, रोहतक, हिसार, पटियाला, नाभा और झींद श्रादि की ग्रामीण योली यही चांगरू है। यह पंजाबी, राजस्थानी और सडी योली तीनों की खिचडी है। यांगरू बोलनेवालों की संख्या वाईस लाख है। बांगरू बोली की पश्चिमी सीमा पर सरस्वती नदी बहती है। पानीपत और कुरक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान इसी बोली की सीमा के अंदर पड़ते हैं। (३) ब्रजमाषा-व्रजमंडल में ब्रजभाषा बोली जाती है। इसका विशुद्ध रूप श्राज भी मथुरा, श्रागरा, अलीगढ़ तथा धौलपुर में बोला जाता है। इसके बोलनेवालों की संख्या लगभग ७६ लास है। प्रज- भाषा में हिंदी का इतना बड़ा और सुंदर साहित्य लिखा गया है कि उसे बोली अथवा विभाषा न कहकर भाषा का नाम मिल गया था, पर आज तो यह हिंदी की एक विमापा मार कही जा सकती है। आज भी अनेक कवि पुरानी अमर बजभाषा में काव्य लिखते हैं। (४) कन्नौजी-मांगा के मध्य दोश्राय की बोली कन्नौजी है। इसमें भी अच्छा साहित्य मिलता है पर यह भी ब्रजभापा का ही साहित्य माना जाता है, क्योंकि साहित्यिक कन्नौजी और ब्रज में कोई विशेष अंतर नहीं लक्षित होता। गोरख और परपरा से पृथक हो जायेंगी और दोनों अपभ्रष्ट होकर एक ऐसी स्थिति उत्पन करेंगी, जो भारतीय भाषाओं के इतिहास की परपरा में उथल- पुथल कर देगी।