पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३३

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दसवाँ अध्याय रीति काल जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य पाणी उनके अंतःकरणों से निकलकर देश के . कोने कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास भक्ति और रीति आरसात में सामान्यतः भक्तियुग कहते हैं। निश्चय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था। भक्ति के उस पावन स्रोत में कितनी ही छोटी बड़ी धाराएँ श्रा मिली थीं, जिनसे उसका प्रवाह अक्षय और वेग अप्रतिहत हो गया था। न जाने कितने भक्तों ने अपनी अंतरात्मा की पुकार को वाणीवद्ध करके हिंदी का अपार कल्याण किया और न जाने कितने हृदय मुरझाकर सूख जाने से बचे। भारतीय जनसमाज के उस घोर आपत्काल में भक्तों ने ही शांति और सांत्वना का विधान किया था और उन्हीं की उदारता तथा दूरदर्शिता के फल-स्वरूप निराश और भग्नहृदय हिंदुओं में नवीन आशा और उत्साह श्रादि का संचार हुश्रा था। मुसलमानों का विजयगर्व बहुत कुछ कम हो जाने के कारण उनमें संयम तथा सहानुभूति का प्रादुर्भाव हो गया था। उस काल में जिन उत्कृष्ट श्रादों की प्रतिष्ठा हुई थी, वे भक्त कवियों की अनुभूति और उदारता के परिणाम स्वरूप थे। यही कारण है कि वे इतने सर्व- मान्य और व्यापक हो सके थे। उन श्रादों में उन कवियों और महा- पुरुषों का जो जीवन छिपा हुआ है, वही उनका सत्य संदेश है। जब जिस साहित्य में अंतरात्मा की पुकार पर निर्माण का कार्य होता है, तय उसमें ऐसी ही दिव्य भावनाओं का आविर्भाव होता है, जिनसे साहित्य में उन्नत युग का श्राभास मिले विना नहीं रह सकता। उन संतों और भक्तों में इतनी नम्रता श्रीर विनयबुद्धि थी, ये इतने उदार और उन्नत-हृदय थे कि न तो संसार की माया-ममता उन्हें उनके पथ से डिगा सकती थी और न तुच्छ आकांक्षा ही उन्हें मोह सकती थी। जो कुछ उनकी आत्मा का संदेश था, जो कुछ वे कहने श्राए थे, उसे निर्भीक होकर स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा। यही कारण है कि उनकी वाणी में बाह्य आडंबर बहुत कम है। क्या वर्णित विपय की दृष्टि से और क्या भाषा की दृष्टि से, सव में एक निसर्गसिद्ध सौंदर्य