पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३५

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रीति काल ३३५ किया था, और जिस काल में बड़े बड़े नृपतियों तक में उनके स्वर में स्वर मिलाने की साध उत्पन्न हुई थी, हिंदी साहित्य के उस काल की महिमा अपार है। उस काल में देश की सच्ची स्थिति को पहचानने- वाले पुरुषों ने श्रात्मप्रेरणा से स्वर्गीय साहित्य की सृष्टि की थी, उस काल में प्रकृति ने स्वयं कवियों की लेखनी पकड़कर उनके लिये काव्य रचा था। उस काल का साहित्य अलंकारों के अनपेक्षी, शब्दजालशून्य, सत्य की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, उसमें बाहर से वनाव-गार करने की चेष्टा नहीं की गई है, जो कुछ है वह श्रांतरिक है। कुछ भालोचकों की सम्मति में भारतीय कवि की यह विशेषता है कि उसे काव्य-कला का पंडित होना आवश्यक होता है, यह कविता संबंधी अनेक नियमों से बँधकर ही श्रात्मलाभ करता है। पर यह बात भारतीय कवि के लिये भी उतनी ही सत्य है जितनी अन्य देशीय कधि के लिये। यदि अन्य देशों में प्रतिभाशाली कवि काव्य संबंधी प्रचलित नियमों और प्रतिबंधों की अवहेलना करके स्वतंत्र रीति से कविता कर सकता है, तो भारत में भी उसे ऐसा करने का पूरा अवसर है। यूरोप में काव्य संबंधी विवाद जितने अधिक देख पड़ते हैं उतने भारत में नहीं। यदि कहें तो कह सकते हैं कि हिंदी के फधीर आदि कविता-कला से जितने अधिक अनभिज्ञ थे, संभवतः अन्य किसी देश का कोई कवि उतना अनभिज्ञ न होगा, फिर भी कवीर हिंदी के श्रेष्ठ कवियों में सम्मानित श्रासन के अधिकारी माने जाते हैं। उपर्युक्त श्रालोचकों को कदाचित् यह बात भूल जाती है कि साहित्य की परंपरा में लक्षण ग्रंथों का निर्माण लक्ष्य ग्रंथों के सृजन के उपरांत, उनका ही आधार लेकर, हुआ करता है। पहले कविता की सृष्टि हो जाती है, पीछे उसके नियम श्रादि बनते रहते हैं। संस्कृत साहित्य में भी यही देखा जाता है और हिंदी में भी यही क्रम रहा है। साहित्य के प्रारंभिक युगों में अंतःकरण की प्रेरणा से अत्यंत सरल और अलंकार-निरपेक्ष शैली में काव्य-रचना होती है, पीछे से ज्यों ज्यों अधि. काधिक रचनाएँ होती जाती हैं और जैसे जैसे काव्यचर्चा बढ़ती जाती है वैसे ही धैसे कविता संबंधी नियम बनते जाते हैं। यह प्रवृत्ति केवल इसी देश में नहीं, प्रायः सभी देशों के साहित्यों में पाई जाती है। हाँ, यह बात अवश्य है कि इस देश की प्रवृत्ति वर्गीकरण, श्रेणी-विभाजन आदि की ओर अधिक थी, इस कारण यहाँ के काव्य संबंधी नियम भी विशेष सूक्ष्म और जटिल हो गए हैं, एवं पीछे के साहित्यकारों और कपियों ने उन नियमों का शासन स्वीकार कर अपनी कृतियों को उन्हीं