पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३६ हिंदी साहित्य का अनुयायी बनाया है। ऐसा करने से उनकी भाषा में प्रांजलता तथा आलंकारिकता तो आ गई है, पर कविता का जो सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य जीवन के गंभीर तत्त्वों को सुलझाना तथा हृदयंगम करना है, यह भुला दिया गया है। इससे कविता में पाहा सौंदर्य की वृद्धि हुई है पर उसकी श्रात्मा संकुचित होती गई है। हिंदी में भी सूर और तुलसी के समय तक साहित्य की इतनी अधिक अभिवृद्धि हो चुकी थी कि कुछ लोगों का ध्यान भाषा और रीतिकाल का प्रारंभ नकाशा भायों को अलंकृत करने तथा संस्कृत की काव्य- रीति का अनुसरण करने की घोर खिंच रहा था। इसका यह अर्थ नहीं है कि सूर और तुलसी तथा उनके पूर्व के सत्क- वियों में श्रालंकारिकता नहीं थी प्रथया ये काव्य-रीति से परिचित ही न थे। ऐसी बात नहीं थी। अनेक कवि पूर्ण शास्त्रज्ञ और काव्यकलाविद् थे। चे सूदम से सूक्ष्म श्रालंकारिक शैलियों का पूरा पूरा शान रखते थे। स्वयं महात्मा तुलसीदासजी ने अपनी अनभिज्ञता का विज्ञापन देते हुए भी ग्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर अपना पूर्ण प्राधिपत्य तथा काव्य-रीति का सूक्ष्मतम अभिशान दिखाया है। अंतर इतना ही है कि उन्हें काव्य-कला को साधन मात्र बनाकर रचना करनी थी, साध्य यना- कर नहीं। श्रतएव उन्होंने अलंकारों श्रादि से सहायक का काम लिया है, स्वामी का नहीं। इसके विपरीत पीछे के जो कवि हुए, उन्होंने काव्य-कला की परिपुष्टि को ही प्रधान मानकर शेष सब बातों को गौण स्थान दिया और मुक्तकों के द्वारा एक एक अलंकार, एक एक नायिका अथवा एक एक ऋतु का वर्णन किया है। श्रागे चलकर यह प्रथा इतनी प्रचलित हुई कि विना रीतिग्रंथ लिखे कवि-कर्म पूरा नहीं समझा जाने लगा। हिंदी साहित्य के इस काल को हम इसी लिये रीतिकाल कहते हैं। रीति-ग्रंथकार कवियों का स्वरूप ठीक ठीक समझने के लिये उनके प्राविर्भाव-काल की परिस्थितियों पर ध्यान देना होगा। भक्ति-काल के अंतिम चरण में कृप्याभक्ति की कविता की प्रधानता थी। कवियों में अधिकांश ब्रजभाषा के मुक्तक छंदों तथा गीतों के द्वारा कृष्ण की ललित लीलाओं के वर्णन-की परिपाटी चली थी। कृपण और धारा के सौंदर्य-वर्णन में भक्त कवियों ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। प्रेम और विरह-लीला तथा हास आदि का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन भक्त कवियों ने किया था। वह यद्यपि उनके पवित्र हृदय से निरस्त होने के कारण पूत भावनाओं से समन्वित था, पर साधारण पाठकों की लौकिक दृष्टि में उसमें भंगारिकता ही अधिक प्रतीत होती है। राधा और कृष्ण के