पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३३८

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३३८ हिंदी साहित्य थे। प्रसंगानुसार साहित्यिक और ग्रामीण प्रयोगों में जैसी उनकी पटुता थी हिंदी में उसकी कहीं समता नहीं मिलती। रीति काल में भापा भी रीतिग्रस्त हो गई। कोमल कांत पदावली को चुन चुन- कर, कर्कशता का सप्रयास बहिष्कार कर, कितने ही अप्रयुक्त शन्दों को अपनाकर जिस भाषा-परिपाटी की प्रतिष्ठा की गई, वही समस्त रीति काल में चलती रही और आज भी ब्रजभाषा के कति उसका निर्वाह उसी प्रकार करते चले जाते हैं। साहित्य की ब्रजभापा रीति की लोक पर चलनेवाली भापा है और ब्रज-प्रांत की भापा से बहुत कुछ भिन्न है। उसका निर्माण जिस परिस्थिति में हुया, उससे उसमें कोमल कांत पदावली की अतिशयता ही रही-कटु, तिक्त, कपाय आदि के उपयुक्त महामाणता न श्राकर वह अधिकतर सुकुमार ही बनी रही। कमल, कदली, मयूर, चंद्र, मदन आदि के लिये उसमें जितने काव्यप्रयुक्त शब्द हैं, वे सब कोमलता-समन्वित हैं। प्रजभापा की माधुरी आज भी देश भर में प्रसिद्ध है। परंतु भापाशास्त्र तथा व्याकरण के नियमों के अनुसार ब्रजभापा तथा अवधी के जो सूक्ष्म विभेद हैं, उन पर बहुत अधिक ध्यान कभी नहीं दिया गया। महाकवि सुरदास की प्रजभापा में भी अवधी के ही नहीं पंजाबी और बिहारी तक के प्रयोग हैं। और तो और स्वयं गोस्वामीजी की भापा भी भाषाशास्त्र के जटिल नियमों का पालन नहीं करती। भापा को जटिल बंधनों से जकड़कर उसे निर्जीव कर देने की जो शैली संस्कृत ने ग्रहण की थी, हिंदी उससे बची रही। यही कारण है कि रीति काल में कवियों की भापा बहुत कुछ बँधी हुई होने पर भी बाहरी शब्दों को ग्रहण करने को स्वतंत्रता रखती थी। भाषा को जीवित रखने के लिये यह क्रम परम आवश्यक था। इस स्वतंत्रता के परिणाम-स्वरूप श्रवधी और ब्रज का जो थोड़ा-यहुत सम्मिश्रण होता रहा, वह रीति काल के अनेक प्रतिबंधों के रहते भी बहुत ही आवश्यक था, क्योंकि उतनी स्वतंत्रता के विना काम भी नहीं चल सकता था। यहाँ हमको यह भी स्वीकार करना होगा कि रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, एवं जिन कवियों पर अवधी का प्रभाव है, उन्होंने भी कबीर की सी खिचड़ी भापा कदापि नहीं लिखी। रीतिकाल के कवियों का साहित्य में यया स्थान है, इसकी समीक्षा मासिक समीना कवित्व की दृष्टि से भी की जा सकती है, और " प्राचार्यत्व की दृष्टि से भी। कवित्व की दृष्टि से समीक्षा करने में हमारी कमोटी ऐसी होनी चाहिए जिस पर हम संसार