पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३४१

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रीति काल. ही बनाई हुई सीमा में जकड़ जाना पड़ा। साहित्य का उच्च लक्ष्य भुला दिया गया। तत्कालीन कवियों को कृतियाँ विश्खल, निरंकुश और उद्दाम है, उनमें कहीं उद्यातिउच्च भावनाएँ फलुपित प्रसंगों के पास ही खड़ी है तो कहीं सौंदर्य और प्रेम के मर्मस्पर्शी उद्गार अतिशयोक्ति और बात की करामात से घिरे हैं। कहीं उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं के बोझ से वास्तविक यात दब गई है तो कहीं श्लेप की ऊटपटांग योजना भानमती का पिटारा दिसला रही है। जैसे किसी को कुछ कहना ही न हो, कविता केवल दिलबहलाव के लिये गपशप या ऐयाशों की वहक की हुँकारी हो । यह सब होते हुए भी कुछ प्रतिभाशाली कवियों की कृतियां रीति की सामान्य शैली से बहुत ऊपर उठकर मुक्तक छंदों में जैसी सुंदर और तीव भावव्यंजना करती हैं उससे कवियों के हार्दिक आंदोलन का पता लगाया जा सकता है। कुछ कवियों ने प्रेम के सूक्ष्म तत्त्वों का निरूपण भी किया है, केवल विभाव, अनुभाव आदि का अति- चरण रूप खड़ा करके रस-निप्पत्ति की चेष्टा ही नहीं की है। ऐसे कवियों का स्थान सौंदर्य-स्रष्टा मौलिक साहित्यकारों के बीच में चिरकाल तक रहेगा, यद्यपि यह मानना पड़ेगा कि सौंदर्य-सृष्टि करने में अन्य देशों के श्रेष्ठ कवियों ने जिस सूक्ष्म दृष्टि और स्वायत्त शक्ति का परिचय दिया है, यह रीति काल के हिंदी कवियों में बहुत अधिक मात्रा में नहीं मिलती। भापा और छंद आदि की दृष्टि से भी रीति काल के कवि बहुत नीचे नहीं गिरते। ब्रजभापा का जो साहित्यिक रूप निर्मित मुना था, उसमें अनुभूयमान फोमलता और सुकुमारता उन्हीं कवियों के प्रयास का फल था। इस प्रकार की कोमलता और सुकुमारता को हम सर्वथा हेय ही समझते हों, यह बात नहीं है। शृंगाररस का पल्ला पकड़कर गार्हस्थ्य-जीवन के जैसे सुंदर और सुकुमार चित्र उन्हें उतारने थे, उसके उपयुक भाषा का स्वरूप स्थिर फरना कवियों की प्रतिमा का ही परिचायक है। इनके कारण छंदों में भी अच्छी प्रौढ़ता और परिष्कृति श्राई है। बिहारी ने दोहा छंद को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। देव और पद्माकर के कवित्त तथा मतिराम के सवैए गठन की दृष्टि से अद्वितीय हुए हैं। पीछे से छंदों की भी रीति बध गई और अन्य छंदों में प्रायः कुछ भी रचना नहीं हुई। केशव श्रादि कुछ कवियों ने विविध छंदों के प्रयोग की चेष्टा की, पर उन्हें मांजने में वे भी समर्थ नहीं हो सके। ऊपर हमने वर्णित विपय और भाषा की दृष्टि से रीति फाल के फवियों की जो समीक्षा की है, वह इस युग के आलोचकों को भले ही