पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३४५

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३४५ रीति काल शास्त्रकारों ने भरत के ही अनुकरण पर ग्रंथरचना की है और "रस" को काव्यात्मा प्रतिपादित किया है। परंतु मरत के उपरांत अलंकारशास्त्रियों की नई नई शैलियाँ निकलीं जिनमें विभिन्न राष्टियों से काव्य-समीक्षा की गई। समयानुक्रम . से सबसे प्रथम भामह का काव्यालंकार ग्रंथ श्राता अलकार-सप्रदाय कामह ने अपने ग्रंथ में अलंकारों की जो जो विशिष्टता प्रतिपादित की है उसे लेकर दंडी, रुद्रट श्रादि पीछे के श्राचार्यों ने अलंकारों को काव्यात्या बतलाया और वे काव्य में अलंकार-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक बने । इन श्राचार्यों ने यद्यपि रस- संप्रदाय का परिचय प्राप्त किया था, पर चे रस-पद्धति को नाटकों के उपयुक्त समझते थे। सामान्य काव्य-ग्नंथों में घे अलंकारों को ही प्रधान स्थान देने के पक्ष में थे। उनकी सम्मति में रस श्रादि अलंकारों से गौण हैं; एवं नोज, प्रसाद, माधुर्य श्रादि गुण भी अलंकार ही हैं। इन ग्रंथों में प्रायः दो सौ अलंकारों का विवरण दिया गया है। कुछ विवेचकों ने भ्रमवश भामह को ध्वन्यभाववादी ठहराया है; पर यह निश्चित रीति से कहा जा सकता है कि न तो उन्होंने ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य यादि शब्दों का प्रयोग किया है और न ये प्रतीयमान अर्थ को काव्य की श्रात्मा मानते थे। वे ध्वनि को नहीं किंतु वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति को सब अलंकारों का मूल मानते थे। अलंकारवादियों के इस संप्रदाय का हिंदी के प्राचार्य कवि केशवदास पर घड़ा प्रभाव पड़ा था। दंडी के उपरांत संस्कृत में एक नधीन समीक्षा-संप्रदाय के संस्थापक वामन हुए जिन्होंने रीति-पद्धति की स्थापना की। उनके ग्रंथ काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति में दस शब्दगुणों तथा सानदाय दस अर्थगुणों का उल्लेख है। गुणों का विवेचन बहुत पहले से हो चुका था, स्वयं भरत मुनि के नाट्यशास्त्र तथा रुद्र- दामन के शिलालेस में दस गुणों का उल्लेख है, पर उनमें गुणों को गौण स्थान ही मिला है। चामन ने गुणों को अलंकारों से अलग कर मानों दंडी के भ्रम का संशोधनासा किया। उसने रीति को काव्य की श्रात्मा बतलाया। रीति शब्दों के नियमित और संघटित प्रयोग को कहते हैं। गुणों के अस्तित्व से ही रीति की प्रतिष्ठा होती है। उसने वैदी, गौड़ी तथा पांचालीरीतियों का विवरण दिया है और चैदी रीति में दसों गुणों का समावेश माना है। अलंकार-संप्रदायवालों ने भ्रम में पड़कर अलंकारों को ही काव्य का सर्वस्व मान लिया था, ४४