पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३४८

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हिंदी साहित्य है और कहीं वेरवृक्ष को प्रलयवेला के द्वादशादित्य घतलाते हैं। प्रकृति के रम्य रूपों में कोई आकर्पण नहीं रह गया था, वे केवल अलंकार के डव्चे हो गए। चंद्रमा की सुपमा फाव्य के भीतर ही रह गई। विहारी ने अतिशयोक्ति तथा वस्तुव्यंजना के सामने भावव्यं जना और रसव्यंजना की परवाह नहीं की। तिथि जानने के लिये पत्रे की आवश्यकता न रह गई, गुलाब-जल की भरी शीशी जादू के से प्रभाव से बीच ही में खाली हो गई। अनुप्रास तथा शब्दाडंबर की अतिशयता के लिये पद्माकर का नाम ले लेना पर्याप्त है। काव्यरीति के शाता ही कविता समझ सकते थे क्योंकि "नीरभरी गगरी ढरकावे" का अर्थ समझने के लिये नायिकाभेद के तथा ध्वनिव्यंजना के विशेपश की श्रावश्यकता स्पष्ट है। इस प्रकार काव्यधारा का स्वच्छंद प्रवाह रुककर रीति फी नालियों से बहने लगा। उस समय रीति-ग्रंथों को इतना महत्त्व दिया जाता था कि कवि कहलाने के लिये उसी परिपाटी पर ग्रंथ-रचना करना प्रायः अनिवार्य था । महाकवि भूपण का उदाहरण प्रत्यक्ष है। जिस वीर कवि को जातीय उत्थान तथा धीरगुणगान की सच्ची लगन थी, उसे भी सामयिक प्रवाह में पड़कर, वीर-रस-समन्वित हो सही, रीति-ग्रंथ लिखना ही पड़ा। नीचे रीति काल के कुछ मुख्य कवियों तथा प्राचार्यों का संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। यद्यपि समयविभाग के अनुसार केशवदास भक्तिकाल में पड़ते है और यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास श्रादि के समकालीन होने तथा . रामचंद्रचंद्रिका श्रादि ग्रंथ लिखने के कारण ये - कोरे रीतिवादी नहीं कहे जा सकते, परंतु उन पर पिछले काल के संस्कृत साहित्य का इतना अधिक प्रभाव पड़ा था कि अपने काल की हिंदी काव्यधारा से पृथक् होकर वे चमत्कारवादी कवि हो गए. और हिंदी में रीति-ग्रंथों की परंपरा के श्रादि प्राचार्य कहलाए । केशवदास ओड़छे के राजा इंद्रजीतसिंह के आश्रित दरवारी कवि थे। संस्कृत-साहित्य-मर्मज्ञ पंडित-परंपरा में उत्पन्न होने के कारण इनकी प्रवृत्ति रीति-ग्रंथों की भोर हुई थी। ये दंडी और रुय्यक श्रादि अलंकार- संप्रदाय के उन श्राचार्यों के मतानुयायो थे जो अलंकारों को ही काव्य की श्रात्मा स्वीकार करते थे। केशवदास की रचनाओं पर इस संप्रदाय की गहरी छाप देख पड़ती है। रस-परिपाक की और इनका ध्यान बहुत कम रहता है, कहीं कहीं अलंकारों के पीछे पड़कर ये इतनी जटिल और निरर्थक पदरचना करते हैं कि सहृदयों को ऊव जाना पड़ता है। इनकी कृतियों के क्लिष्ट होने का कारण इनका काव्य के वास्तविक ध्येय को न