पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३५७

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ग्यारहवाँ अध्याय आधुनिक काल पद्य कविता का जो प्रवाह केशवदास और चिंतामणि श्रादि ने वहाया देव और विहारी के समय में वह पूर्णता को पहुँचकर क्षीण होने लगा रीति-धारा का अंत तथा पद्माकर और प्रतापसाहि तक पहुँचते पहुँचते उसकी गति प्रायः मंद पड़ गई। यह तो हम पहले ही कह चुके हैं कि संपूर्ण रीति-काल में अधिकांश निम्नकोटि का साहित्य तैयार होता रहा, जिसका कारण तत्कालीन जनता तथा रईसों की अभिरुचि थी। कविता का उच्च लक्ष्य भुला दिया गया था। जीवन- संबंधिनी स्थायी तथा उच्च भावनाएँ लुप्त हो गई थी और कविता गंदी पासनाओं की साधिका मात्र बन रही थी। यह ठीक है कि इस काल के कुछ प्रतिभाशाली कवियों ने कहीं कहीं गार्हस्थ्य जीवन के मधुर संबंधों की बड़ी ही सुंदर अभिव्यंजना की है तथा प्रेम और सौंदर्य के छोटे छोटे रमणीक दृश्य मुक्तकों में दिखाए है; पर ऐसे कवियों की संख्या बहुत अधिक न थी। अधिकांश कवि अलंकारों के पीछे पागल होकर घूम रहे थे और रीति के संकीर्ण घेरे के बाहर निकलने में असमर्थ थे। जिस देश की जिस काल में ऐसी साहित्यिक प्रगति होती है, यह देश उस काल में सामाजिक, राजनीतिक तथा नैतिक श्रादि सभी दृष्टियों से पतित हो जाता है और कुछ समय के उपरांत उच्च लदय के संपन्न साहित्यकारों के प्रसाद से उसकी दशा का सुधार और संस्कार हुश्रा करता है। शृंगार काल के अंतिम चरण में पद्माकर से बढ़कर कोई कवि नहीं हुआ। उन्हें हम इस समय का प्रतिनिधि कवि मान सकते हैं। भंगारिक कविता में अश्लीलता का समावेश करके, अनुप्रासों की भरमार करके और समस्यापूर्ति की परंपरा का बीजारोपण करके उन्होंने जिस परिपाटी की पुष्टि की थी, आज भी वह थोड़ी-बहुत देखी जाती है। देहातों में कहीं चले जाइए, पद्माकर के सबसे अधिक कचित्त लोगों को कंठान मिलेंगे, नवसिखुए कवियों को उनका ही सहारा देख पड़ेगा और समस्यापूर्तियों का प्रचलन भी खूप मिलेगा। अर्थालंकारों की ओर उतना ध्यान न भी हो, पर अनुप्रासों की योजना