पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३७५

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आधुनिक काल ३७५ बुंदेलखंडी हिंदी, पंडिताऊ हिंदी और बाबू इँगलिश की तरह यह उस समय उर्दू हिंदी कहलाती थी, पर पीछे भेदक उर्दू शब्द स्वयं भेद्य बनकर .उसी प्रकार उस भाषा के लिए,प्रयुक्त होने लगा जिस तरह संस्कृत पाक के लिये केवल संस्कृत शब्द। मुसलमानों ने अपनी संस्कृति के प्रचार का सबसे बड़ा साधन मानकर इस भाषा को खूब उन्नत किया और जहाँ जहाँ फैलते गए, वे इसे अपने साथ लेते गए। उन्होंने इसमें केवल फारसी तथा अरवी के शब्दों की ही उनके शुद्ध रूप में अधिकता नहीं कर दी, बल्कि उसके व्याकरण पर भी फारसी अरबी व्याकरण का रंग चढ़ाया। इस अवस्था में इसके दो रूप हो गए, एक तो हिंदी कहलाता रहा और दूसरा उर्दू नाम से प्रसिद्ध हुआ। दोनों के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके, पर व्याकरण का संघटन हिंदी के ही अनुसार रखकर, अँगरेजों ने इसका एक तीसरा रूप हिंदुस्तानी बनाया। अतएव इस समय खड़ी चोली के तीन रुप वर्तमान है- (१) शुद्ध हिंदी जो हिंदुओं की साहित्यिक भाषा है और जिसका प्रचार हिंदुओं में है, (२) उर्दू जिसका प्रचार विशेषकर मुसलमानों में है और जो उनके साहित्य की और शिष्ट मुसलमानों तथा कुछ हिंदुओं की घर के बाहर की योलचाल की भाषा है, और (३) हिंदुस्तानी जिसमें साधारणतः हिंदी उर्दू दोनों के शब्द प्रयुक्त होते हैं प्रार जिसका बहुत से लोग बोलचाल में व्यवहार करते है। इसमें अभी साहित्य की रचना बहुत कम हुई है। इस तीसरे रूप के मूल में राजनीतिक कारण हैं। भ्रमवश हिंदी में खड़ी बोली गद्य के जन्मदाता लल्लूजी लाल माने जाते हैं। यह भ्रम उन अँगरेजों के कारण फैला है जो अपने श्राने के पहले गद्य का अस्तित्व हिंदी में स्वीकार ही नहीं करते। परंतु यह यात असत्य है। अकबर बादशाह के यहां संवत् १६२० के लगभग गंग भाट था। "उसने चंद छंद घरनन की महिमा" खड़ी बोली के गद्य में लिखी है। उसके पहले का कोई प्रामाणिक गद्य लेस न मिलने के कारण उसे खड़ी बोली का प्रथम गद्यलेखक मानना चाहिए। इसी प्रकार १६८० में जटमल ने "गोरा यादल की कथा" भी इसी भाषा के तत्कालीन गद्य में लिखी है। लल्लजीलाल हिंदवी को अाधुनिक रूप देनेवाले भी नहीं है। उनके और पहले का मुंशी सदासुख का शिया । हुधा भागवत का हिंदी अनुवाद सुखसागर वर्तमान है। इसके अनंतर इंशाउल्ला सां, लल्लू जी लाल तथा सदल मिथ का समय पाता है।। इंशाउल्लाखां की रचना में शुद्ध तन्य शब्दों का प्रयोग है। उनकी