पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३८२

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३८२ हिंदी साहित्य उनकी पालोचनाओं के संबंध में विद्वानों में मतभेद हो सकता है और है भी, पर समालोचना का कार्य प्रारंभ करने के कारण मिश्रबंधुओं का हिंदी साहित्य पर ऋण है और उसे स्वीकार न करना इतनता माना जायगा। यह सच है कि अनेक विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से उनके हिंदी नवरत्न तथा मिश्रयंधुधिनाद की आलोचना की, पर मतभेद का होना जीवन का लक्षण और उन्नति का सूचक है और इसलिये हम उसका स्वागत करते हैं। इस बात का विना ध्यान रखे कि सब बातों में क्रमिक विकास होता है, पूर्व कृतियों को तुच्छ मानना जहाँ अनुचित है वहाँ इस बात का भी ध्यान रहना चाहिए कि हमारे शान तथा अनु- भव की वृद्धि निरंतर होती रहती है, इसलिये साहित्य के विद्यार्थियों, समालोचकों तथा निर्माताओं का अपने अपने मतों को वेदवाक्य मान पैठना, नवाविष्कृत तथ्यों की अवहेलना करना तथा भिन्न मत रखने- वालों को हेय समझना साहित्य के भावी विकास और उन्नति के लिये हितकर न सिद्ध होगा। . मिश्रयंधुओं के उपरांत हिंदी के कवियों पर आलोचनात्मक लेख और पुस्तकें लिखनेवालों में पंडित पासिंह शर्मा और पंडित कृष्ण- चिहारी मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं। मिश्रजी की भाषा शर्माजी की भाषा से अधिक साधु और शिष्ट है और उनकी विवेचन-पद्धति भी अधिक गंभीर है। शर्माजी की समालोचनाशैली बड़ी ही व्यंग्यमयी हो गई है और उसमें करियों की प्रशंसा में वाह वाह कहने का उर्दू ढंग पकड़ा गया है। यदि शर्माजी फुछ अधिक गंभीरता और शिष्टता साथ लिए रहते तो अच्छा होता। कदाचित् उनकी उछलती, कूदती, फुदकती हुई भाषाशैली के लिये यह संभव न था। (अँगरेजी ढंग की गंभीर बालोचनाए लिखनेवालों में पंडित रॉम. चंद्र शुक्ल प्रमुख हैं।) जायसी, तुलसी, सूर श्रादि कवियों पर उनके निबंध सुंदर विश्लेषणात्मक आलोचना के रूप में लिखे गए हैं, जिनसे कवियों के मानसिक और कलात्मक विकास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। विश्वविद्यालयों की उच्च श्रेणियों में पढ़ाई जाने योग्य समालोच. नाओं में शुक्लजी की समालोचनाएँ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हुई हैं। यादू पदमलाले बस्शी ने भी दो एक समालोचनात्मक पुस्तकें लिसकर / हिंदी के विकासक्रम को स्पष्ट करने का प्रयत किया है। मासिक पत्रिकाओं में समालोचनाएँ लिखने का ढंग अधिक उपयुक्त और प्रशंस- नीय होता जा रहा है। पहले की अपेक्षा व्यक्तिगत माक्षों की बहुत कुछ कमी हो गई है। कदाचित् यह कह देना अनुचित न होगा कि