पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३८३

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आधुनिक काल ३८३ समालोचना का काम बहुत महत्त्वपूर्ण है और उसे सफलतापूर्वक करना सवका काम नहीं है। अन्य सभी साहित्यों में नाटकों का विवेचन रंगशाला के नियमों प्रतिबंधों आदि को लेकर होता है। अँगरेजी के अनेक विद्वान् समा- नाटक लोचक तो रंगशाला के अनुपयुक्त नाटकों को नाटक कहते ही नहीं। उन देशों में रंगशालाएँ बहुत अधिक विकसित हो चुकी है, और प्रत्येक नाटककार उनके नवी- नतम विकास से परिचित होना आवश्यक समझता है। नवीन विकास के कारण जो पुरानी नाटकीय रचनाएँ आधुनिक रंगमंच के अनुपयुक्त हो गई हैं, अथवा पिछड़ी हुई देख पड़ने लगी हैं, उनको निम्न स्थान दिया जाता है। स्वयं शेक्सपियर के नाटक भी रंगमंच को दृष्टि से पुराने हो गए हैं अतः कम खेले जाते हैं, अथवा सुधारकर खेले जाते हैं। हिंदी के लिये यह बड़ी लज्जा की बात है कि अब तक वह पारसी रंग- मंच के ही हाथों में पड़ी है, उसकी अपनी रंगशालाएँ या तो है ही नहीं, अथवा मृतक सी हैं। व्यावसायिक रंगमंच तो हिंदी में कदाचित् एक भी नहीं। हम लोग अब तक नाटक खेलने को तुच्छ नटों का काम समझते हैं। अनेक अाधुनिक नाटककार घर पर कल्पना के द्वारा नाट- कीय प्रतिबंधों पर विचार करते हैं, रंगशालाओं में जाकर नाटक देखकर या खेलकर अपने अनुभव की वृद्धि नहीं कर पाते। पारसी रंगमंच अपने पुराने अवगुणों को लिए हुए चला जा रहा है। वही अलंक- रणाधिक्य, वही अस्वाभाविक भाषा और वही अस्वाभाविक भाषण ! हिंदी की जो दो एक नाटकमंडलियां हैं, वे तिथि-त्योहारों पर कुछ खेल खेलाकर ही संतोप कर लेती हैं। यह स्थिति बड़ी ही शोचनीय है। बंगला, मराठी, गुजराती श्रादि भाषाओं के रंगमंच विशेप उन्नत हैं और प्रतिदिन उन्नति करते जाते हैं। ऐसी अवस्था में राष्ट्रभाषा हिंदी पर गर्व करनेवालों का मस्तक अवश्य नीचा होता है। हिंदीभाषी रईसों को चाहिए कि यथासंभव शीघ्र नाट्यमंडलियों को सहायता दें, और हिंदीमापी विद्वानों को चाहिए कि वे यथासंभव शीन श्रमि- नय-कार्य को अपने हाथ में लें, उसे नटों का काम ही न समझे रहे। साथ ही हिंदीभाषी जनता को चाहिए कि वह हिंदी नाट्यमंडलियों के नाटक देखकर उन्हें प्रोत्साहन दे। श्राधुनिक नाटककारों में चावू जयशंकर प्रसाद, पंडित यदरीनाथ भह, पंडित गोविंदवल्लभ पंत आदि प्रसिद्ध हैं। याबू प्रेमचंद्रजी ने संग्राम और फर्वला नाम के दो नाटक लिसे हैं जिनमें उन्हें सफलता