पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३८४

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३६६ हिंदी साहित्य शक्ति प्रेमचंदजी को मिली है। इस कार्य में ये संसार के बड़े बड़े उप- न्यासकारों के समकत है । प्रेसचंदजी के उपन्यासों में श्रादर्शवाद की ओर अधिक ध्यान दिया गया, तथ्यवाद का उतना विचार नहीं रखा गया। दोनों का उपयुक्त सम्मिश्रण कदाचित् उनके उपन्यासों के महत्त्व को और भी बढ़ा देता। कहीं कहीं विशेषकर रंगभूमि में श्रावश्यकता से अधिक विस्तार किया गया है। यह उपन्यास दो भागों में न होकर एक ही भाग में समाप्त हो जाता तो अधिक रुचिकर होता। दूसरा भाग तो जवरदस्ती चढ़ाया गया जान पड़ता है। हम नहीं कह सकते कि उपन्यास लिखने के कार्य में जय- शंकर प्रसादजी को कहाँ तक सफलता प्राप्त होगी। "कंकाल" नामक उपन्यास का निर्माण उसके नाम के अनुकूल हुआ है। समस्त उपन्यास के पढ़ जाने पर हमें उसके समाज के नंगे चित्र का उद्घाटन रचिकर नहीं हुआ। चरित्रचित्रण में प्रसादजी ने अच्छा कौशल दिखाया है। इनमें मंगलदेव श्रीर यमुना (तारा) के चित्र बड़ी निपुणता से चित्रित किए गए हैं। पढ़ते पढ़ते एक के प्रति आंतरिक घृणा और दूसरी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। एक यदि रँगा हुआ सियार है तो दूसरी युवावस्था, के उद्धग से मार्गच्युत होकर जन्म भर आत्मसंयम से काम लेकर अपने निर्दिएमए पर दृढ़ रहनेवाली है। । . प्राधुनिक हिंदी की आख्यायिकाएँ सस्कृत के हितोपदेश अथवा राजतरंगिणी के ढंग पर नहीं लिखी गई, अँगरेजी फी छोटी कहानियों श्राख्यायिका की शैली पर लिखी गई हैं। घटनाओं की सहा- यता से पानों की व्यक्तिगत विशेषताओं को चित्रित करना अाजकल की कहानियों का मुख्य लक्ष्य हो रहा है। समाज की कुरीतियों के प्रदर्शनार्थ भी कहानियाँ लिखी जाती है, ऐतिहासिक तत्वों पर प्रकाश डालने की दृष्टि से भी कहानियाँ लिखी जाती है, और दार्शनिक-कहानियाँ भी लिखी जाती हैं। कहानियों में न तो घटनाओं का क्रम अधिक जटिल होता है और न जीवन के बड़े बड़े चित्र दिखाए जाते है। हिंदी में श्राख्यायिकाओं का प्रारंभ करनेवाले गिरिजाकुमार घोष नामक सज्जन थे। उनके उपरांत याबू जयशंकर प्रसाद, श्रीज्यालादत्त, श्रीप्रेमचंदजी, कौशिकजी, सुदर्शनजी, हृदयेशजी आदि कहानी-लेखक हुए। प्रसादजी की श्राख्यायिकाएँ कवित्वपूर्ण होती है, उन्हें एक बार पढ़कर कई बार पढ़ने की इच्छा होती है। उनकी कुछ कहानियों में प्राचीन इतिहास की खोई हुई वातों की खोज की गई है, कुछ में मन-