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हिन्दी सहित्य


गुलाबराय और श्रीयुत कन्नोमल के दार्शनिक निबंध भी साधारणतः अच्छे हुए है। निबंधों के क्षेत्र में पंडित रामचंद्र शुक्ल का सबसे अलग स्थान है। मानसिक विश्लेषण के आधार पर उन्होंने करुणा, क्रोध आदि मनोवेगों पर अनेक अच्छे निबंध लिखे हैं। विवरणात्मक निबंधलेखकों ने यात्रा, भ्रमण आदि पर जो कुछ लिखा है, वह सब मध्यम श्रेणी का है। सारांश यह कि निबंधों की ओर अभी विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। हिंदी साहित्य के इस अंग की पुष्टि की ओर सुलेखकों का ध्यान जाना चाहिए ।

यों तो गद्य का विकास बहुत प्राचीन काल में हुया था, परंतु तारतम्य उस समय से प्रारंभ हुआ जिस समय मुंशी सदासुखलाल, इंशाउल्ला खां, सदल मिश्र और लल्लूजी लाल ने अपनी रचनाएँ की। उस समय की शैली की अवस्था वही थी जो वस्तुतः आरंभिक काल में गद्य शैली का विकास होनी चाहिए। जिन लोगों ने वस्तु का आधार संस्कृत से लिया, उनकी भाषा में भी संस्कृत की छाप लग गई। इस काल में कथा कहानी की ही रचनाएँ हुई। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि यह प्रारंभिक काल था। न तो भापाशैली में पल का संचार हुआ, न उसका कोई संयत रूप स्थिर हुश्रा और न पाठकों में इतनी शक्ति उत्पन्न हुई थी कि गवेपणात्मक रचनाओं का अध्ययन कर सकें। इन लेखकों में भी दो दल स्पष्ट दिखाई पड़ते थे। एक ने तो संभवतः प्रतिक्षा कर ली थी कि उर्दूपन-उर्दू ढंग की वाक्य-रचना एवं शब्द योजना-का पूर्ण बहिष्कार किया जाय, और दूसरे ने उर्दूपन लेकर शैली को चमत्कारपूर्ण बनाने की चेष्टा की। अभी तक न तो शब्दों का कप ही स्थिर हुआ था और न भाषा का परिमार्जन ही हो सका था। व्याकरण की शोर तो आँख उठाना ही अस्वाभाविक या अनावश्यक ज्ञात होता था। मुहावरों के प्रयोग से कुछ चमत्कार अवश्य उत्पन्न हो रहा था। जिन लोगों ने मुहावरों और उर्दूपन का एकदम बहिष्कार किया उनकी भाषा गंभीर भले ही रही हो परंतु उसका आकर्षण और चमत्कार अवश्य नष्ट हो गया था। इस समय के प्रायः सभी लेखकों में प्रांतीयता स्पष्ट झलकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि यह आरंभिक काल था तो वे सभी आवस्थाएं रचना-शैली में उपस्थित थीं जो स्वाभाविक रूप में उस समय होनी चाहिए थीं।

इसके उपरांत लगभग पचास वर्षों तक हिंदी का कार्य भारत- वर्ष के धर्म-प्रचारक ईसाइयों के हाथ में था। उस समय की रचनाओं को देखने से विदित होता है कि इन ईसाइयों ने उर्दूपन का घोर विरोध