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आधुनिक काल


किया और सभी रचनाओं में पूर्ण रूप से हिंदीपन का ही निर्वाह किया। न तो शब्द-योजना ही में उर्दूपन दिखाई पड़ता है और न वाक्यविन्यास ही में। आवश्यकता पड़ने पर इन लोगों ने ग्रामीण शब्दों तक का व्यवहार किया परंतु उर्दू के शब्दों का नहीं। यह स्पष्ट विदित होता है कि इन लोगों ने सचेष्ट होकर, उर्दूपन को दूर रखकर, भाषा का रूप शुद्ध रखा।

इधर राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह के गद्य-क्षेत्र में आते ही पुनः हिंदी और उर्दू का द्वंद्व आरंभ हुआ।साधारण रूप से विचार करने पर तो यही कहा जा सकता है कि उस समय तक न तो व्याकरण के नियमों का ही निर्वाह दिखाई पड़ता था और न भाषा का ही कोई रूप स्थिर हो सका था। रचना का विकास अवश्य हो रहा था और पठन-पाठन के विस्तार से अनेक विषयों में गद्य की पहुँच आरंभ हो गई थी, और कितने ही विषयों पर पुस्तकें लिखी जा रही थीं। हिंदीगद्य का रूप कुछ व्यापक अवश्य हो रहा था। उसमें अय भावद्योतन का क्रमशः विकास होने लगा था। इस समय प्रधान बात हिंदी उर्दू का झगड़ा था। राजा शिवप्रसाद को सभी रचनाओं में उर्दूपन घुसेड़ने की धुन समाई थी। उनको विश्वास था-संभव है ऐसा विश्वास करने के लिये वेयाध्य किए गए हों-कि यदि उर्दूपन का बहिष्कार किया जायगा तो भाषा की व्यावहारिकता नष्ट हो जायगी और उसमें भावद्योतन का चमत्कार और बल न पा सकेगा। यह विचार राजा लक्ष्मण सिंह को ठीक न जचा। अतः उन्होंने इसके विरोध में, अपनी रचनाओं में भापा का रूप पूर्ण शुद्ध ही रखा। ऐसा करके उन्होंने यह स्पष्ट दिखा दिया कि उर्दूपन से दूर रहकर भी भाव बड़ी सरसता से प्रकाशित किए जा सकते है, ऐसी अवस्था में भी चमत्कार उपस्थित किया जा सकता है। विना उर्दूपन का सहारा लिए ही सुंदर से सुंदर रचनाएँ की जा सकती हैं।

इस द्वंद्व का निरीक्षण बाबू हरिश्चंद्र भली भांति कर रहे थे। सोच-विचार करने के उपरांत उन्होंने मध्यम मार्ग के अवलंघन का निश्चय किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में भाषा का बड़ा व्यावहारिक रूप रखा। न उर्दूपन का पूर्ण बहिष्कार ही किया और न उर्दू-ए. मुअल्ला के पक्षपाती ही बने। जहां उन्होंने उर्दू के शब्दों का व्यवहार किया वहाँ उनका तद्भव रूप ही रखा। इस फाल में अनेक पत्र पत्रि- काएँ प्रकाशित होने लगी थीं। हिंदी का व्यवहार-क्षेत्र अय अधिक व्यापक होने लगा था। भारतेंदुजी के अनेक सहयोगी तैयार हो गए थे। वे सभी दक्ष पत्र-संपादक और लेखक थे। इन लोगों के हाथों से