पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४०

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हिंदी का ऐतिहासिक विकास से कुछ स्वयं उनके बनाए हुए हों; पर अधिकांश अवतरण मात्र हैं और इसलिये उसके पहले के हैं। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में वर्तमान महा- राज भोज का पितृव्य द्वितीय वाफपतिराज परमार मुंज जैसा पराक्रमी था, वैसा ही कवि भी था। एक बार वह कल्याण के राजा तैलप के यहाँ कैद था। कैद ही में तैलप की वहन मुंणालवती से उसका प्रेम हो गया और उसने कारागृह से निकल भागने का अपना भेद अपनी प्रण- यिनी को बतला दिया। मृणालवती ने मुंज का मंसूवा अपने भाई से कह दिया, जिससे मुंज पर और अधिक कड़ाई होने लगी। निम्नलिखित दोहे मुंज की तत्कालीन रचना है- ____जा मति पच्छइ संपजह सा मति पहिलो हाइ । मुंज मणइ मुणलवइ विघन न वेढइ काइ ॥ (जो मति पीछे संपन्न होती है, यह यदि पहले हो, तो मुंज कहता है, हे मृणालवती, कोई विन्न न सतावे।) सायर खाई लंक गढ़ गढ़वइ दससिरि राउ। भग्गस्खय से भजि गय मुंज म करि विसाउ ।। (सागर खाई, लंका गढ़, गढ़पति दशकंधर राजा भाग्य क्षय होने पर सव चौपट हो गए। मुंज विपाद मत कर।) ये दोहे हिंदी के कितने पास पहुँचते हुए हैं, यह इन्हें पढ़ते ही पता लग जाता है। इनकी भाषा साहित्यिक है, अतः रूढ़ि के अनुसार इनमें कुछ ऐसे शब्दों के प्राकृत रूप भी रखे हुए हैं जो वोलचाल में प्रचलित न थे, जैसे संपजइ, सायर, मुणालवइ, विसाउ। इन्हें यदि निकाल दें तो भाषा और भी स्पष्ट हो जाती है। इस अवस्था में यह माना जा सकता है कि हेमचंद्र के समय से पूर्व हिंदी का विकास होने लग गया था और चंद के समय तक उसका कुछ कुछ रूप स्थिर हो गया था; श्रतएव हिंदी का प्रादि काल हम सं० १०५० के लगभग मान सकते हैं। यद्यपि इस समय के पूर्व के कई हिंदी कवियों के नाम बताए जाते हैं, परंतु उनमें से किसी की रचना का कोई उदाहरण कहीं देखने में नहीं पाता। इस अवस्था में उन्हें हिंदी के श्रादि काल के कवि मानने में संकोच होता है। पर चंद को हिंदी का श्रादि-फयि गानने में किसी को संदेह नहीं हो सकता। कुछ लोगों का यह कहना है कि चंद का पृथ्वीराज रासो बहुत पीछे का बना हुश्रा है। इसमें संदेह नहीं कि इस रासो में बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश है, पर