पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंदी का ऐतिहासिक विकास प्रजभापा पुरानी सार्वदेशिक काव्य-भाषा का विकसित रूप है। उत्तर भारत की संस्कृत का केंद्र सदा से उसका पश्चिम भाग रहा। बड़ी बड़ी राजधानियाँ तथा समृद्धि-शालिनी नगरियां, जहाँ राजा लोग मुक्त- हस्त होकर दान देने के प्रभाव से दूर दूर देश के कवि कोविदों को खींच लाते थे, वहीं थीं। इसी से वहीं की भापा ने काव्य-भाषा का रूप माप्त किया, साथ ही दूर दूर देशों की प्रतिभा ने भी काव्य भापा के एकत्व स्थापित करने में योग दिया। इस प्रकार का कल्पित एकत्व प्रायः विशुद्धता का विरोधी होता है। यही कारण है कि ब्रजभापा भी बहुत काल तक मिश्रित रही। रासो की भापा भी मिश्रित ही है। चंद ने स्वयं कहा है-“पट भापा पुरानं च कुरानं कथितं मया ।" इस पट भाषा का अर्थ स्पष्ट करने के लिये भिखारीदास का निम्नलिखित पद्यांश विचारणीय है- "व्रज मागधी मिले अमर नाग यमन भाखानि । सहज पारसी हू मिले पट विधि कहत वखानि ॥" . मागधी से पूर्वी (अवधी और बिहारी) का तात्पर्य है, श्रमर से संस्कृत का, और यमन से भरवी का, पर नागभाषा कौन सी है यह नहीं जान पड़ता। जो कुछ हो, पर यह मिश्रण ऐसा नहीं होता था कि भाषा अपनापन छोड़ दे। व्रज भापा भाषा रुचिर कहैं सुमति सव कोह।। ' मिले संस्कृत पारस्या पै अति प्रगट जु होइ॥ प्रत्येक कवि की रचनाओं में इस प्रकार का मिश्रण मिलता है, यहाँ तक कि तुलसीदास और गंग भी, जिनका काव्य-साम्राज्य में बहुत ऊँचा स्थान है, उससे न बच सके। भिखारीदासजी ने इस संबंध में कहा है- तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार। जिनकी कविता में मिली भाषा विविध प्रकार ॥ अय तक तो किसी चुने उपयुक्त विदेशी शब्द को ही कविगण अपनी कविता में प्रयुक्त करते थे, परंतु इसके अनंतर भाषा पर अधिकार न रहने, भावों के प्रभाव, तथा भापा की आत्मा और शक्ति की उपेक्षा करने के कारण अरुचिकर रूप से विदेशी शब्दों का उपयोग होने लगा और भाषा का नैसर्गिक रूप भी परिवर्तन के श्रावत में फंस गया। फारसी के मुहाविरे भी ब्रजभाषा में अजीव स्वांग दिखाने लगे। इसका फल यह हुआ कि ब्रजभाषा में भी एक विशुद्धतावादी श्रादोलन का प्रारंभ हो गया। हिंदी भाषा के मध्यकालीन विकास के दूसरे अंश फी विशे-