पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४५

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हिंदी भाषा पता ब्रजमापा की विशुद्धता है। भाषा की इस प्रगति के प्रमुख प्रति- निधि घनानंद है। ब्रजभाषा का यह युग अब तक चला पा रहा है, यद्यपि यह श्रय क्षीणप्राय दशा में है। वर्तमान युग में इस विशुद्धता के प्रतिनिधि पंडित श्रीधर पाठक, याबू जगन्नाथदास रत्नाकर और पंडित रामचंद्र शुक्ल श्रादि वताए जा सकते हैं। किसी समय भी बोलचाल को ब्रजभाषा का पया रूप था, इसका पता लगाना कठिन है। गद्य के जो थोड़े बहुत नमूने चौरासी वैष्णवों और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता तथा वैद्यक और साहित्य के ग्रंथों की टीका में मिलते हैं वे संस्कृत-गर्मित है। उनसे इस कार्य में कोई विशेष सहायता नहीं मिल सकती। ब्रज और अवधी के ही समान प्राचीन होने पर भी खड़ी बोली साहित्य के लिये इतना शीघ्र नहीं स्वीकृत हुई, यद्यपि बहुत प्राचीन काल से ही वह समय समय पर उठ उठकर अपने अस्तित्व का परिचय देती रही है। मराठा भक्त प्रवर नामदेव का जन्म संवत् ११६२ में हुश्रा था। उनकी कविता में पहले पहल शुद्ध खड़ी बोली के दर्शन होते हैं- “पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी। लैकरि ढेंगा टॅगरी तोरी लंगत लंगत जाती थी॥", इसके अनंतर हमको खड़ी बोली के अस्तित्व का बराबर पता मिलता है। इसका उल्लेख हम यथास्थान करेंगे। कुछ लोगों का यह कहना है कि हिंदी की खड़ी बोली का रूप प्राचीन नहीं है। उनका मत है कि सन् १८०० ई० के लगभग लल्लूजी- लाल ने इसे पहले पहल अपने गद्य ग्रंथ प्रेमसागर में यह रूप दिया और तप से खड़ी बोली का प्रचार हुआ। ग्रियर्सन साहब 'लालचंद्रिका' की भूमिका में लिखते हैं- "Such a language did not exist in India before.... When, therefore, Lallujilal wrote his Premsagara in Hindi, he was inventing an altogether new language." अर्थात्-"इस प्रकार की भापा का इससे पहले भारत में. कहीं पता न था... अतएव जय लल्लूजीलाल ने प्रेमसागर लिखा, तब वे पक बिलकुल ही नई भापा गढ़ रहे थे।" इसी बात को लेकर उक्त महोदय अपनी Linguistic Survey (भाषाओं की जांच) की रिपोर्ट के पहले भाग में लिखते हैं- "This Hindi (ie, Sanskritized or at least non- Persianized form of Hindustani ), therefore, or as