पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/५१

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५० हिंदी भाषा (क)प्रथम प्रकार के धातु (१) या तो एक स्वर के बने होते है, जैसे 'इ' (२) या एक स्वर और एक व्यंजन से, जैसे "श्रद" (३) अथवा एक व्यंजन और एक स्वर से, जैसे "दा"। किसी भापा के इतिहास में इस प्रकार के धातु, जिन्हें हम भूल धातु कह सकते हैं, सबसे प्रधान होते हैं। पर विकासोन्मुख विचारों और भावों को व्यंजित करने में इनकी शक्ति साधारणतः बहुत अस्पष्ट होती है। इसलिये क्रमशः इनका स्थान दुसरे प्रकार के धातु और दूसरे प्रकार के धातुओं का स्थान तीसरे प्रकार के धातु ग्रहण कर लेते हैं। (ख) दूसरे प्रकार के धातु एक व्यंजन, एक स्वर और एक

  • व्यंजन से बने होते हैं। जैसे 'तुद्'। आर्य भाषाओं में इस श्रेणी के

धातुओं का अंतिम व्यंजन प्रायः बदलकर अनेक अन्य धातुओं की सृष्टि करता है, जैसे, तुप, तुम, तुज , तु, तुर, तुह, तुस् । इन सब धातुओं के अर्थ में मूल भाव एक ही है, पर विचारों और भावों के सूक्ष्म भेद प्रदर्शित करने के लिये इन धातुओं के अंतिम व्यंजन का परिवर्तन फरके शब्दों की शक्ति की व्यापकता का उपाय किया गया है। (ग ) तीसरी श्रेणी के धातुओं के चार उपभेद होते हैं, जो इस प्रकार बनते हैं- (१) व्यंजन, व्यंजन और स्वर; जैसे "प्तु"। (२) स्वर, व्यंजन और व्यंजन जैसे "अ"। (३) व्यंजन, व्यंजन, स्वर और व्यंजन; जैसे "स्पश"। (४) व्यंजन, व्यंजन, स्वर, व्यंजन और व्यंजन जैसे "स्पन्द"। इस श्रेणी के धातुओं में यह विशेपता होती है कि दो व्यंजनों में से एक अंतस्थ, अनुनासिक या ऊष्म होता है और उसमें विपर्यय होकर अनेक धातु बन जाते हैं, जो भायों या विचारों के सूदम भेद व्यंजित करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार धातुओं से संस्कृत के शब्द-भांडार की श्रीवृद्धि हुई है। प्रोफेसर मैक्समूलर का अनुमान है कि यदि विचार और परिश्रम किया जाय, तो संस्कृत का समस्त शब्द-भांडार १७०८ से घटकर प्रायः ५०० धातुओं पर अवलंचित हो जाय। इन्हीं धातुओं से संस्कृत का समस्त शब्द-भांडार बनता है। संस्कृत शब्दों में से अनेक शब्द हमारी हिंदी में मिल गए हैं। ऐसे शब्दों शों को, जो सीधे संस्कृत से हमारी भाषा में पाए हैं, तत्सम शब्द कहते हैं। हमारी श्राजकल की भापा में ऐसे शब्दों का समावेश दिनों दिन बढ़ता जाता है। मापा की उन्नति