पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/८६

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- हिंदी भाषा इन तीनों रूपों पर अलग अलग विचार करने के पहले लगे हाथ हम यह भी लिख देना चाहते हैं कि खड़ी बोली की उत्पत्ति के विषय में जो बहुत से विचार फैल रहे हैं. वे प्रायः भ्रमात्मक हैं। कुछ लोगों का क्या, सं० १९८५ के हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति तक का कहना है कि प्रारंभ में हिंदी या खड़ी वाली प्रजभापा से उत्पन्न हुई और मुसलमानों के प्रभाव से इसमें सब प्रकार के शब्द सम्मिलित हो गए और इसने एक नया रूप धारण किया। इस कथन में तथ्य यहुत कम है। खड़ी बोली के कलेवर पर ध्यान देने ही से यह बात स्पष्ट हो जायगी। यदि यह व्रजभाषा से निकली हुई होती तो इसमें उसी के से घोड़ो, गयो, प्यारी श्रादि ग्रोकारांत रूप पाए जाते जो शौरसेनी प्राकृत से ब्रजभाषा को विरासत में मिले हैं, न कि प्राकारांत घोड़ा, गया, प्यारा श्रादि। ये प्राकारांत रूप अपभ्रंश से हिंदी में पाए हैं। हेमचंद्र ने "स्यादौ दीर्घहस्वी" सूत्र से इनकी सिद्धि पतलाकर कई विभक्तियों में श्राकारांत रूपों के उदाहरण दिए हैं। जैसे- ढाला सामला धण चंपावराणी ढोल्ला मई तुहुँ वारिया मा कुरु दीहा माणु। निद्दए गमिही रत्तड़ी दडपड हाई विहाणु ॥ [दूल्हा साँवला धन चम्पावरनी, दूल्हा, मैं तोहिं वरज्या मत कर दीरघ मान । नींदै गॅवैहो रतिया चटपट होइ विहान ॥] मालूम नहीं यह पैशाची अपभ्रंश का रूप है अथवा और किसी का। हेमचंद्र ने तो इसका उल्लेख नहीं किया है, पर पंजाबी में श्राका- रांत रूप मिलने के कारण यह संभावना होती है। अतः जिन महापुरुषों ने प्राकारांत रूपों पर फारसी के (हे) से अंत होनेवाले शब्दों के प्रभाव की कल्पना की है, उन्हें इस पर फिर से विचार करना चाहिए । दूसरे खड़ी बोली का प्रचार भी उसी समय से है, जब से अवधी या ब्रज- भापा का है। भेद केवल इतना ही है कि ब्रजमापा तथा अवधी में साहित्य की रचना बहुत पहले से होती आई है और खड़ी बोली में साहित्य की रचना अभी थोड़े दिनों से होने लगी है। पूर्व काल में खड़ी घोली केवल बोल-चाल की भाषा थी। मुसलमानों ने इसे अंगीकार किया और प्रारंभ में उन्होंने इसको साहित्यिक भाषा बनाने का गौरव भी पाया। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं कि खड़ी बोली का सबसे पुराना नमूना जो अब तक मिला है वह नामदेव की कविता में है। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह अंश क्षेपक और जाली है पर इस कथन को