पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/८८

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हिंदी भाषा जो मानुष इस अरथ को सोले.. - कुत्ते की वह बोली बोले ॥ रहीम खानखाना ने भी खड़ी बोली में कविता की है। उनका मदनाटक खड़ी योलो का बड़ा मधुर उदाहरण है- कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था। चपल चसनवाला चाँदनी में सड़ा या ॥ कटितट बिच मेला पीत सेला नवेला। अलि बन अलवेला यार मेरा अकेला ॥ हिंदू कवियों ने तथा फवीर, नानक, दादू श्रादि संतों ने भी अपनी कविता में इस सड़ी बोली का प्रयोग किया है। भूपण ने शिवावावनी में अनेक स्थानों पर इस भाषा का प्रयोग किया है। उनमें से कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं- (१) श्रय कहां पानी मुकुतों में पाती हैं। (२) खुदा की कसम खाई है। . (३) अफजल खान को जिन्होंने मैदान मारा। ललित किशोरी की एक कविता का उदाहरण लीजिए- जंगल में हम रहते हैं, दिल बस्ती से घबराता है। मानुप गंध न भाती है, मृग मरकट संग सुहाता है। चाक गरेषा करके दम दम आहे मरना आता है। ललित किशोरी इश्क,रेन दिन ये सब खेल खेलाता है ।। सीतल कवि (१७८०) ने खड़ी बोली में बड़ी ही सुंदर रचना की है। मधुरिमा तो उनकी कविता के अंग अंग में व्याप रही है। देखिए-- हम सूर तरह से जान गए जैसा आनँद का कंद किया। सब रूप सील गुन तेज पुज तेरे ही तन में बंद किया। तुझ हुस्न प्रमा की याको ले फिर विघि ने यह फरफंद किया । चंपक दल सोनजुही नरगिस चामीकर चपला चंद किया ॥ चदन की चौकी चार पड़ी सोता था सर गुन जटा हुया । चौके की चमक श्रधर विहसन मानो एक दाडिम फटा हुना।। ऐसे में ग्रहन समै सीतल एक ख्याल बड़ा अटपटा हुआ। भूतल ते नभ नभ ते अवनी अँग उछलै नद फा बटा हुना।। अतएव यह सिद्ध है कि खड़ी बोली का प्रचार कम से कम सोल- हवीं शताब्दी में अवश्य था, पर साहित्य में इसका अधिक नादर नहीं था। सच बात तो यह है कि खड़ी वोली को काव्यभापा का स्थान कभी नहीं मिला था। यह उसकी अपनी सजीयता थी कि वह समय