पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/९२

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हिंदी भाषा इसके अनंतर ईशाउल्लार्खा, लल्लूजीलाल तथा सदल मिश्र का समय श्राता है। लल्लूजीलाल के प्रेमसागर से सदल मित्र के नासिकेतोपाख्यान की भापा अधिक पुष्ट और सुंदर है। प्रेमसागर में भिन्न भिन्न प्रयोगों के रूप स्थिर नहीं देख पड़ते। करि, फरिके, घुलाय, बुलाय करि, चुलाय कर, वुलाय करिके आदि अनेक रूप अधिकता से मिलते हैं। सदल मिश्र में यह बात नहीं है। इंशाउल्लाखों की रचना में शुद्ध तद्भव शब्दों का प्रयोग है। उनकी भाषा सरल और सुंदर है, पर वाक्यों की रचना उर्दू ढंग की है। इसी लिये कुछ लोग इसे हिंदी का नमूना न मानकर उर्दू का पुराना नमूना मानते हैं। किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित गोरा बादल की कथा भी इस समय की रचना जान पड़ती है। सारांश यह है कि यद्यपि फोर्ट विलियम कालेज के अधिकारियों, विशेष कर डाक्टर गिलक्रिस्ट, की कृपा से हिंदी गद्य का प्रचार पढ़ा और उसका भावी मार्ग प्रशस्त तथा सुव्यवस्थित हो गया, पर लल्लूजीलाल उसके जन्मदाता नहीं थे। जिस प्रकार मुसलमानों की कृपा से हिंदी (खड़ी चोलो) का प्रचार और प्रसार चढ़ा, उसी प्रकार अंगरेजो की कृपा से हिंदी गद्य का रूप परिमार्जित और स्थिर होकर हिंदी. साहित्य में एक नया युग उपस्थित करने का मूल आधार अथवा प्रधान कारण हुना। हम पहले कह चुके हैं कि उर्दू भाषा हिंदी की विमापा थी। इसका जन्म हिंदी से हुया और उसका दुग्धपान करके यह पालित पोपित हुई। पर जय यह शक्ति-संपन्न हो गई, इसमें अपने पैरों पर खड़े होने की शक्ति श्रा गई और मुसलमानों के लाड़-प्यार से यह अपने मूलरूप को भूलकर अपने पृष्ठ-पोपकों को ही सब कुछ समझने लग गई, तव इसने क्रमशः स्वतंत्रता प्राप्त करने का उद्योग किया। पर यह स्वतंत्रता नाम मात्र की थी। इसने हिंदी से, जहाँ तक संभव हुआ, अलग होने में ही अपनी स्वतंत्रता समझी, पर वास्तव में यह अपनी जन्मदात्री को भूल- कर तथा श्रबी-फारसी के जाल में फंसकर अपने आपको उसी प्रकार धन्य मानने लगी, जिस प्रकार एक अविकसित, अनुन्नत अथवा अधोगत जाति अपने विजेता की नकल करके उसका विकृत रूप धारण करने में ही अपना सौभाग्य समझती और अपने को धन्य मानती है। इस प्रकार उर्दू निरंतर हिंदी से अलग होने का उद्योग करती आ रही है। चार बातों में हिंदी से उर्दू की विभिन्नता हो रही है . (१) उर्दू में अरबी-फारसी के शब्दों का अधिकता से प्रयोग हो रहा है, और वह भी तद्भव रूप में नहीं, अपितु तत्सम रूप में।