पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/९६

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हिंदी भाषा गहिर, दून, चौगुन, साँवर, गोर, पियार, ऊँच, नीच इत्यादि विशेषण, आपन, मोर, तोर, हमार, तुम्हार सर्वनाम और फेर, फन, सन तथा पुरानी भाषा के कहँ, महँ, पह, कारक के चिह्न इस प्रवृत्ति के उदाहरण है। अषधी में साधारण क्रिया के रूप भी लवंत ही होते हैं। जैसे- पाउच, जाय, फरव, हँसव इत्यादि। यद्यपि खड़ी वाली के समान अवधी में भूतकालिक कृदंत श्राकारांत होते हैं, पर कुछ अकर्मक कृदंत विकल्प से लवंत भी होते हैं, जैसे-ठाढ़, बैठ, आय, गय। उ०--- धैठ हैं बैठे हैं। (क) बैठ महाजन सिहलदीपो।-जायसी। (स) पाट बैठि रह किए सिंगारू ।-जायसी। इसी प्रकार कविता में कमी कभी वर्तमान की अगाड़ी खोलकर धातु का नंगा रूप भी रख दिया जाता है- (क) सुनत बचन कह पवन कुमारा |-नुलसी । (ख) उत्तर दिसि सरजू यह पावनि |---तुलसी। उच्चारण-दो से अधिक वर्णी के शब्द के श्रादि में 'इ' के उपरांत 'आ' के उच्चारण से कुछ द्वेप ब्रज और खड़ी दोनों पछाहीं बोलियों को है। इससे अषधी में जहाँ ऐसा योग पड़ता है, वहाँ ब्रज में संधि हो जाती है। (जैसे अवधी के सियार, कियारी, थियारी, चियाज, बियाह, पियार (कामिहिं नारि पियारि जिमि !-तुलसी), नियाव इत्यादि ब्रज- भापा में स्थार, क्यारी, व्यारी, व्याज, ध्याह, प्यारो, न्याय इत्यादि चोले जायँगे। 'उ' के उपरांत भी 'श्रा' का उच्चारण ब्रज को प्रिय नहीं है। जैसे-पूरवी-दुधार, कुवार। ब्रज-द्वार, क्वारा। इौर उ के स्थान पर य और य की इसी प्रवृत्ति के अनुसार अवधी इहाँ उहाँ [ (१) इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा। (२) उहाँ दशानन सचिव हकारे। तुलसी] के ब्रज रूप 'यहाँ' 'वहाँ' और 'हियाँ' 'हुाँ' के 'हाँ' 'हाँ' होते हैं । ऐसे ही 'अ' और 'श्री' के उपरांत भी 'इ' नापसंद है, 'य' पसंद है। जैसे- अवधी के पूर्वकालिक श्राइ, जाइ, पाइ, कराइ, दिखाइ इत्यादि और भवि- ज्यत् आइहै, जाइहै, पाइहै, कराइहै, दिखाइहै (अथवा अइहै, जइहै, पहहै, करहहै, दिखइहै ) आदि न कहकर ब्रज में क्रमशः श्राय, जाय, पाय, दिखाय तथा श्रायहै, जायहै, पायहै, करायहै, दिखायहै (अथवा अयहै - पेहै, जयहै - जैहै श्रादि ) कहेंगे। इसी रुचि-वैचित्र्य के कारण 'ऐ' और 'श्री' का संस्कृत उच्चारण (श्रइ, अउ के समान) पच्छिमी हिंदी (खड़ी और ब्रज ) से जाता रहा, केवल 'य'कार 'व'कार के पहले रह गया, जहाँ दूसरे 'य' 'च' की गुंजाइश नहीं। जैसे, मैया, कन्हैया, भैया, कौवा,