पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/९९

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साहित्यिक हिंदी की उपभाषाएँ 'चलायहिं तो क्या 'श्रावहीं 'चलावहीं' तक लिखे जाने से भाषा की सफाई जाती रही। शब्दों का अंग भंग करने का 'कर्षिदों ने ठेका सा ले लिया। समस्यापूर्ति की पादत के कारण कवित्त के अंतिम चरण की मापा तो ठिकाने की होती थी, पर शेष चरण इस बात को भूलकर पूरे किए जाते थे कि शब्दों के नियत रूप और वाक्यों के कुछ निर्दिष्ट नियम भी होते हैं। पर भापा के जीते-जागते रूप को पहचाननेवाले रसखान और घनानंद ऐसे कवियों ने ऐसे सनाले या विकृत रूपों का प्रयोग नहीं किया, किया भी है तो बहुत कम 'श्रावहि', 'जाहिं', 'करहिं', 'कहहुँ' न लिखकर उन्होंने घरावर 'श्रा', 'जायें', 'करें', 'कहाँ' लिखा है। इसी प्रकार 'इमि', 'जिमि', तिमि' के स्थान पर वे वरावर चलती भाषा के 'यो', 'ज्यो', 'त्यों' लाए है। ब्रज की चलती भाषा में केवल सर्वनाम के कर्म में 'ह' कुछ रह गया है, जैसे, जाहि, ताहि, वाहि, जिन्है, तिन्हें । पर 'जाहि' 'चाहि' के उच्चारण में 'ह' घिसता जा रहा है, लोग 'जाय' 'वाय' के समान उच्चारण करते हैं। हिंदी की तीनों चोलियों (सडी, ब्रज और अवधी) में व्यक्तिवाचक सर्वनाम कारक चिह्न के पहले अपना कुछ रूप बदलते है। ब्रजभाषा में अवधी का सा विकार होता है, सडी बोली का सा नहीं। खडी अवधी में-तू-वह मैं-त-वह, सो, ऊ मैं-तू या तै-यह-सो मुझ-तुझ-उस मे-तो-वा, ता, यो । मो-तो या, ता 'ने' चिह्न तो अवधी में श्राता ही नहीं। ब्रज में उत्तम पुरुप कर्ता का रूप 'ने' लगने पर 'मैं' ही रहता है। ऊपर अवधी में प्रथम पुरुष का तीसरा रूप पूरवी अवधी का है। ब्रज में एकवचन उत्तम पुरुप 'हा' भी श्राता है जिसमें कोई कारक चिह्न नहीं लग सकता। वास्तव में इसका प्रयोग कर्ता कारक में होता है, पर केशव ने कर्म में भी किया है। यथा-पुन हौ विधवा फरी तुम कर्म कीन्ह दुरंत । जाना, होना के भूतकाल के रूप (गवा, भवा) में से व उडाकर जैसा अवधी में गा, भा रूप होते हैं, वैसे ही ब्रज में भी य उडाकर गो, भो (घ० गे, भे) रूप होते है। उ०—(क) इत पारि गो को मैया मेरी सेज पे कन्हैया को?-पद्माकर। (ख) सौतिन के साल भो, निहाल नंदलाल भो। मतिराम । खडी बोली करण का चिह्न 'से क्रिया के साधारण रूप में लगाती है, व्रज और अवधी प्राय भूतकालिक कृदंत में ही लगाती हैं, जैसे- प्रज