पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१०२

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"सु गुण लायण निधि" ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है कि इसी 'सु' से वह की उत्पत्ति है । परन्तु यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि अ गिर गया है । यह क्लिष्ट कल्पना है। एक दूसरे विद्वान् भी संस्कृत के असौ सेही वह और वे कि उत्पत्ति मानते हैं--१ तदू के प्रथमा एकबचन का रूप 'स' और बहुवचन का रूप ते होता है पुल्लिंग में । स्त्रीलिंग में यही सा और ता हो जाता है । तद् के द्वितीया का एकबचन पुल्लिंग में तं और स्त्रीलिंग में ताम् होगा। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों में इनका व्यवहार देखा जाता है।

'सा दिसि जोइ म रोइ' 'सामालइ देसन्तरिअ'

'तंतेवड्डउँ समरभर' 'सो च्छेयहु नहिलाहु' तं तेत्तिउ जलु सायर हो सो ते वहुवित्थारू' 'जइ सो वड़दि प्रयावदी' 'ते मुग्गडा हराविआ'

'अन्ने ते दीहर लोअण'

इससे पाया जाता है कि सः से 'सो' और वह की और 'ते' से 'वे' की उत्पत्ति है । ब्रजभाषा और अवधी दोनों में वह के स्थान पर 'सो' का और वे के स्थान पर ते का बहुत अधिक प्रयोग है। गद्य में अब भी 'वह' के स्थान पर 'सो' का प्रयोग होते देखा जाता है । यदि ते से वे की उत्पत्ति मानने में कुछ आपत्ति हो तो उसको वह का वहुबचन मान सकते हैं।

प्राकृत भाषा का यह सिद्धान्त है कि तवर्ग; 'ण '; 'ह', और 'र' के अतिरिक्त जब किसी दूसरे व्यंजनवर्ण के बाद यकार होता है तो प्रायः उसका लोप हो जाता है, और तत संयुक्तवर्ण को द्वित्व प्राप्त होता है २ इस सिद्धान्त के अनुसार कस्य का कस्स और यस्य का जस्य और तस्य का तस्स प्राकृत में होता है, और फिर उनसे क्रमशः किस, कास, कासु+जास, जासु और

. १-पालि प्रफाश पृ० २१

२-ओरिजन आफ दि हिन्दी लोंगवेज पृ० १२ ।