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पसन्द करते हैं जैसे रोज़ः, कूज़ः, सब्ज़ः, ज़र्रः आदि। परन्तु अधिक सम्मति इसके विरूद्ध है, मैं भी प्रथम प्रणाली को ही अधिकतर युक्ति सम्मत समझता हूं।
हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप उर्दू है। दिल्ली मुसलमान सम्राटों की राजधानी अन्तिम समय तक थी। दिल्ली के आस पास और उसके समीपवर्ती मेरठ के भागोंमें जो हिन्दी बोली जाती है, उसीमें लश्करके लोगों की बोलचालका मिश्रण होनेसे जिस भाषा की उत्पत्ति हुई, शाहजहाँ के समयमें उसी का नाम उर्दू पड़ा। कारण इसका यह है कि तुर्की भाषा में लश्कर को उर्दू कहते हैं। किसी भाषा में अन्य भाषा के कुछ शब्द मिल जायें तो इससे उस भाषा का कुछ रूप बदल जा सकता है, परन्तु वह भाषा अन्य भाषा नहीं बन जाती। उर्दू भाषा की रीढ़ हिन्दी भाषा के सर्वनाम, विभक्तियों, प्रत्यय और क्रियायें हो हैं, उसकी शब्द योजना भी अधिकतर हिन्दी भाषा के समान ही होती है, ऐसी अवस्था में वह अन्य भाषा नहीं कही जा सकती।
मैंने चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व सूत्र से जो इस बारे में लिखा था, विषय को और स्पष्ट करने के लिये उसे भी यहां उद्धृत करता हूं।
"यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से किसी भाषा का नाम बदल जाता है, तो फ़ारसी अंगरेज़ी आदि बहुत सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिये। फ़ारसी में अरबी और तुर्की के इतने अधिक शब्द मिल गये हैं, कि उतने शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फ़ारसी के नहीं मिले, फिर क्यों फ़ारसी फ़ारसी कही जाती है, और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फ़ारस के विख्यात महाकवि फ़िरदोसी ने अपने शाहनामा में एक स्थान पर लिखा है, फ़लक गुफ़्त अहसन मलक गुफ़्त ज़ेह" अहसन और ज़ेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो ख़ालिस फ़ारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे आ गये उन्होंने कहा कि "फ़लक व मलक गुफ़्त न मन गुफ़्त" मतलब