पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१२०

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'शब्दशक्ति प्रकाशिका' के रचयिता यह लिखते हैं:—

"तुल्यवदेक क्रियान्वयित्वम् वृद्धि विशेष विषयित्वम् वा साहित्यम्।"

शब्द कल्पद्रुम कार की यह सम्मति है:—

"मनुष्य कृत श्लोकमय ग्रन्थ विशेषः साहित्यम्।"

कवीन्द्र "रवीन्द्र" कहते हैं:—

"सहित शब्द से साहित्य की उत्पत्ति है—अतएव, धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टि गोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है यही नहीं, वरन् वह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का अतीत के साथ वर्त्तमान का, दूरके सहित निकट का अत्यन्त अन्तरंग योग साधन साहित्य व्यतीत और किसी के द्वारा सम्भव पर नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है उस देशके लोग सजीव बन्धन से बँधे नहीं, विच्छिन्न होते हैं"।[१]

"श्राद्धविवेक" और "शब्द शक्ति प्रकाशिका" ने साहित्य की जो व्याख्या की है "कवीन्द्र" का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है। वह व्यापक और उदात्त है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है। 'शब्द कल्पद्रुम' की कल्पना कुछ ऐसी ही है। परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एक देशीय पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान पतन का साधन है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है जो देश को अन्धकार रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्रों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अध्यवसायशील जाति का अध्यवसाय, साहसी जाति का साहस और कर्तव्य परायण जाति का कर्तव्य है।


  1. देखिये 'साहित्य' नामक बँगला ग्रन्थ का पृ॰ ५०