पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(१३३)

नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है। जैसे तणय, मणहर, मण, गयण, दिणयर दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथमा और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है[१]। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयाग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है। जैसे श्रमणः समणो, शिष्यः सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस दिलवि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम भी है कि अनेक स्थानों में दीध स्वर हस्व एवं ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू, और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज करइ सारो, तासु, मुंह, दस, आवइ, रंग, बोलइ, धरइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं जैसे गुण, राजग्रह मति, अभय, पंकज, गिरि, सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्रायः 'न, के स्थान पर कार का प्रयोग देखा जाता है, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है. परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर. नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूं, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित हो कर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया


  1. देखिए पाली प्रकाश पृ॰ २