पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१५१

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में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक मुसल्मान साम्राज्य दिन दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इति श्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि, जिनसे हिन्दी-भाषा का मुखउज्जवल हुआ इसी काल में हुए। इस माध्यमिक काल में जैसा सुधा-वर्षण हुआ, जैसी रस धारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी-संसार आलोकित हुआ जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए उसका वर्णन बड़ाही हृदय-ग्राही और मम-स्पर्शी होगा। मैं ने इस कार्यसिद्धि के लिये ही इस समय को धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्र यहां पर चित्रित किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिये।

चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानोंने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो शार्ङ्ग-धर नामक कवि ने शार्ङ्गधर-पद्वति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये जिनमें से हम्मीर रासो अधिक प्रसिद्ध है। बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाणस्वरूप कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं।

कवि शार्ङ्गधर (रचना काल १३०६ ई॰)

१—ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।
पुर जज्जल्ला मंत्रिवर चलिय वीर हम्मीर।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।
दिग पग डह अंधार धूलि सुरिरह अच्छा इहि।

ग्रंथ-संघपति समग रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल १३१४ ई॰)

२—निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।
पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।