पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१५३

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का पंडित था। इसके रचे फ़ारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएं बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्राञ्जल और सुन्दर हैं कि उनको देख कर यह आश्चर्य होता है कि पहले पहल एक मुसलमान ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूं कि माध्यमिक काल में मुसल्मान अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे मुसलमानों का अप्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूं। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देख कर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिये इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूं। उनको पढ़ कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहां तक युक्ति-संगत है।

१—एक थाल मोतोसे भरा, सबकेसिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोतो उससे एक नगिरे।
२—आवे तो अँधेरी लावे, जावे तो सबमुख ले जावे।
क्या जाने वह कैसा है, जैसा देखा वैसा है।
३—बात की बात ठठोली की टटोली।
मरद की गांठ औरत ने खोली।
४—एक कहानी मैं कहूं तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया, बाँध गले में मृत।
५—सोभा सदा बढ़ावन हारा, आँखिन तेछिन होत न् न्यारा।
आये फिर मेरे मन रंजन ऐसखि साजन ना सखि अंजन