पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१५५

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अधिकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फ़ारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गए हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्दबरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी, फ़ारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधानी और सफ़ाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़ मरोड़ कर या विगाड़ कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्रायः इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी के बह्रों में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलता पूर्वक की है, साथ ही फ़ारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तमता से मिलाया है, जो मुग्ध कर देता है। मैं उस पद्य को यहां लिखता हूं। आपलोग भी उसका रस लें—

"ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैना बनाय बतियाँ।
किताबे हिज्रां न दारमऐजां नलेहु काहें लगाय छतियाँ।
शबाने हिज्रां दराज़ चूँ ज़ुल्फ व रोज़े वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।
एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पीको हमारी बतियाँ।
चूं शमा सोज़ा चूं ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइशक़ आँमह।
न नींद नैना न अङ्ग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।
बहक्क़ रोज़े विसाल दिलबर कि दाद मारा फ़रेबखु सरो।
सपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पियाकी घतियाँ

इस पद्य का अरबी बह्र है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि