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लिखित मिलती हैं, या जन साधारण में प्रचलित हैं उन सब की भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हां, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधक है, परन्तु मैं यह सोचता हूं कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रंथ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है उसके लेखक के प्रमाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनाओं, की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अंतर पड़ गया है। प्रायः लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने सँस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ-लेखन के समय भी हुआ ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता।
मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनाओं के आधार पर करूंगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिद्ध धर्म स्थानों के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्रहवीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलिन किया गया है। इस लिये इसकी प्रमाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनायें देखिये :—
१—गंगा के सँग सरिता बिगरी,
सो सरिता गंगा होइ निबरी।
बिगरेउ कबीरा राम दोहाई,
साचु भयो अन कतहिं न जाई।
चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ,
सो तरुवरु चंदन होइ निबरेउ।
पारस के सँग ताँबा बिगरेउ,
सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ।
संतन संग कबिरा बिगरेउ,
सो कबीर रामै होइ निबरेउ।