पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१७९

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( १६५ ) कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक को अनधिकार-चेष्टा से सुरक्षित हैं । उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखियेः१--दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त । पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त । २-कवीर संगत साधु की कदे न निरफल होय । चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय ॥ ३-कायथ कागद काढ़िया लेखै वार न पार । जब लग साँस सरीर में तय लग राम सँभार । ४-हरजी यहै विचारिया, साखी कहै कबीर । भवसागर मैं जीव हैं, जे कोइ पकड़े तीर । ५-ऐसी वाणी बोलिये. मन का आपा खोइ । अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ। इन पयों के जिन शब्दों पर चिन्ह बना दिये गये हैं वे पंजाबी या गजस्थानी हैं । इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्रायः मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनको मुख्य भाषा को संदिग्ध नहीं बनातं क्योंकि जिस पत्र में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधी अथवा ब्रजभाषा में वाणी को 'वानी' ही लिखा जाता है. क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्रायः न के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते, हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्रायः नकार णकार हो जाता है। वे 'बानी' को 'वाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाव के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावे तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ साहब में भी देखा जाता है कि प्रायः कबीर साहब की