यह कहे कि इसका सम्बन्ध किसी अनन्तकाल व्यापी बीज से नहीं हो सकता। भाषा चिरकालिक विकास का फल हो, और उसके इस विकास का हेतु मानव समाज ही हो, किन्तु जिन योग्यताओं और शक्तियों के आधार से वह भाषा को विकसित करने में समर्थ हुआ, वे ईश्वर दत्त हैं, अतएव भाषा भी ईश्वर कृत है, वैसे ही जैसे संसार के अन्य वहुविकसित पदार्थ। भगवान मनु के ऊपर के श्लोकों का यही मर्म है। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से जिस प्रकार परमात्मा ने तप, रति, काम, और क्रोध को उत्पन्न किया, उसी प्रकार वाणी को भी, यही उनका कथन है। जैसे कोई तप और काम को आदि से मनुष्य कृत नहीं मानता, उसी प्रकार वाणी को भी मनुष्य कृत नहीं कह सकता। मनुष्य की वाणी ही भाषा की जड़ है, वाणी ही वह चीज़ है, जिससे भाषा पल्लवित हो कर प्रकाण्ड वृक्ष के रूप में परिणत हुई है, फिर वह ईश्वर कृत क्याें नहीं?
'यथेमां वाचं कल्याणी मा वढानि जनेभ्यः, इस श्रुति में भी 'वाचं शब्द है, भाषा शब्द नहीं। प्रथम श्लोक के वेद शब्देभ्य, वाक्य में भी शब्द का ही प्रयोग है, उस शब्द का जो आकाश का गुण है, और आकाश के समान ही व्यापक और अनन्त है। वाणी मनुष्य समाज तक परिमित है, किन्तु शब्द का सम्बन्ध प्राणिमात्र से है, स्थावर और जड़ पदार्थो में भी उसकी सत्ता मिलती है। यही शब्द भाषा का जनक है, ऐसी अवस्था में यह कौन नहीं स्वीकार करेगा। कि भाषा ईश्वरीय कला की ही कला है। कोलरिक, कहता है—
भाषा मनुष्य का एक आत्मिक साधन है, इसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिच ने इस प्रकार की है "ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुद्धि दी है, क्यों कि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है" १
मैं ने मनुभगवान के विचारों को स्पष्ट करने और भाषा की स्टष्टि पर प्रकाश डालने के लिये अब तक जो कुछ लिखा है; उससे यह न समझना
१ देखो स्टडी आफ़ वर्डस् आर. सी. ट्रीनिच. डी. डी.