पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१९६

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कहीं कहीं वह अधिकतर उच्छृखल है, छन्दो नियम की रक्षा भी उसमें प्रायः नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन मोहकता, भावुकता, और विचार की प्राञ्जलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।



कबीर साहब के समकालीन कुछ ऐसे सन्त और महात्मा हैं कि जिनकी चचा हुये बिना पन्द्रहवीं इसवी शताब्दी की न तो सामयिक अवस्था पर पूरा प्रकाश पड़ेगा न साहित्यिक परिवर्तनों पर। अतएव अब मैं कुछ उनके विषय में भी लिखना चाहता हूं। किन्तु उनके यथार्थ परिचय के लिये यह आवश्यक है कि स्वामी रामानन्द के उस समय के धार्मिक पग्वित्तनों और सामाजिक सुधारों से अभिज्ञता प्राप्त करली जावे। इसलिये पहले मैं इस महापुरुष के विषय में ही कुछ लिखता हूं। जिस समय स्वामी शंकराचाय्य के अद्वैतवाद ने भारतवर्ष में वैदिक धर्म का पुनरुज्जीवन किया और और जब उसकी विजय वैजयन्ती हिमालय में कुमारी अन्तरीप तक फहरा रही थी। उस समय केवल ज्ञान मार्ग में संतोष न प्राप्त कर अनेक सन्तमहात्मा एक ऐसी भक्तिधाग की खोज में थे जो दार्शनिक जीवन को सरस बना सके। निर्गुण ब्रह्म अनुभव गम्य भले ही हो किन्तु वह सर्व साधारण का वोध गम्य नहीं था। बड़े बड़े महात्माओं की विचार-धाग जिस पंथमें चल कर पद पद पर कुण्ठिन होती थी उस पथ का पथिक होना साधारण विद्या-बुद्धि के मनुष्य के लिये असम्भव था। आध्यात्मिक आनन्द के उपभोग का अधिकारी तत्त्वज्ञ ही हो सकता है, अल्पज्ञ नहीं। इसके लिये किसी प्रत्यक्ष आधार वा अवलम्बन का होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि संसार की स्वाभाविकता किसी ऐसे आधार का आश्रय ग्रहण करना चाहती है जो उसका जीवन-सहचर हो। समाधि में समाधिस्थ हो कर ब्रह्मानंद-सुख का अनुभव करना लोकोत्तर हो. परन्तु उससे वह मनुष्य क्या लाभ उठा सकता है जो न तो ऐसी साधनायें कर सकता है जो सर्वसाधारणके लिये सुलभ हों और न ऐसी सिद्धि प्राप्त कर सकताहै जो उसको सांसारिक नाना कणों से छुटकारा दे सके। लोक साधारणतः परमार्थिक