पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२०

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चाहिये कि ईश्वर और मनुष्य की कृति में जो विभेद सीमा है, मैं उसको मानना नहीं चाहता। गजर को हाथ में लेकर कौन यह न कहेगा कि यह माली का बनाया है, परंतु जिन फूलों से गजरा तैयार हुआ उनको उसने कहां पाया, जिस बुद्धि विचार एवं हस्तकौशल से गजरा बना, उन्हें उसने किससे प्रान किया। यदि यह प्रश्न होने पर ईश्वर की ओर दृष्टि जाती है और उसके प्राप्त साधनों और कार्यों में ईश्वरीय विभूति देख पड़ती है, तो गजरे को ईश्वर कृत मानने में आपत्ति नहीं हो सकती, मेरा कथन इतना ही है। अनेक आविष्कार मनुष्यों के किये हैं, बड़े २ नगर मनुष्यों के बनाये और वसाये हैं। उसने बड़ी बड़ी नहरे निकाली; बड़े बड़े व्योमयान बनाये, रेल तार आदि का उद्भावन किया, उंची ऊंची मीनारे खड़ी की; सहस्रों प्रकाण्ड प्रकाशम्तम्भ निर्माण किये, इसको कौन अम्वीकार करेगा। मनुष्य विद्याओं का आचार्य है, अनेक कलाओं का उद्भावक है, वरन यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय स्टष्टि के सामने अपनी प्रतिभा द्वारा उसने एक नयी स्टष्टि ही खड़ी कर दी है, यह सत्य है, इसको सभी स्वीकार करेगा। परन्तु उसने ऐसी प्रतिभा कहां पाई, उपयुक्त साधन उसको कहां मिले, जब यह सवाल छिड़ेगा, तो ईश्वरीय सत्ता की ओर ही उंगली उठेगी, चाहे उसे प्रकृति कहें या और कुछ। इसी प्रकार यह सत्य है कि संसार की समस्त भाषायें क्रमश; विकाम का फल हैं, देश काल और आवश्यकतायें ही उनके सृजन का आधार है, मनुष्य का सहयोग ही उनका प्रधान सम्वल है, किन्तु सब में अन्तर्निहित किसी महानशक्ति का हाथ है यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसा कह कर न तो मैंने ईश्वर दत्त मनुष्य की बुद्धि और प्रतिभा आदिका तिरस्कार किया, और न उनकी महिमा ही कम की। न वादग्रस्त विषय को अधिक जटिल बना दिया और न सुलझे हुये बिषय को और उलझन में डाला। वरन वास्तविक बात बतला, जहां मानव की आन्तरिक प्रवृत्तियों को ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न कहा, और इस प्रकार उन्हें विशेष गौरव प्रदान किया। वहां दो परस्पर टकराते और उलझते हुये विषयों के बीच में ऐसी बातें रखीं जिनसे वर्द्धमान जटिलता बहुत कुछ कम हो सकती है, और उभयपक्ष अधिकतर सहमत हो सकते हैं। संसार में जितनी भाषायें