पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२००

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( १८६ ) लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँच कर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं । स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूं। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनायें भी देखियेः- १- नरहरि चंचल है मति मेरी। कैसे भगति करूँ मैं तेरी । तू मोहिं देखै हौं तोहिं देखू , प्रीति परस्पर होई। तू मोहिं देखे तोहि न देखू, यह पति सब विधि खोई । सब घट अन्तर रमसि निरन्तर, मैं देखन नहिं जाना। गुन सब तोर मोर सब अवगुन, कृत उपकार न माना। मै तें तोर मोर असमझिमों, कैसे करि निस्तारा। कह रैदास कृष्ण करुणा मय, जय जय जगत अधारा । २-फल कारन फूलै( १८६ ) लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँच कर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं । स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूं। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनायें भी देखियेः१- नरहरि चंचल है मति मेरी । कैसे भगति करूँ मैं तेरी । तू मोहिं देखे हों तोहिं देखू , प्रीति परस्पर होई। तू मोहिं देखे तोहि न देखू, यह पति सब विधि खोई । सब घट अन्तर रमसि निरन्तर, मैं देखन नहिं जाना। गुन सब तोर मोर सब अवगुन, कृत उपकार न माना। मै ते तोर मोर असमझिसों, कैसे करि निस्तारा। कह रैदास कृष्ण करुणा मय, जय जय जगत अधारा। २-फल कारन फूलै बनराई। उपजै फल तब पुहुप बिलाई । राखहिं कारन करम कराई। उपजै ज्ञान तो करम नसाई। जल में जैसे तूंया तिरै। परिचै पिंड जीव नहिं मरै 1

बनराई।

उपजै फल तब पुहुप बिलाई। राखहिं कारन करम कराई। उपजै ज्ञान तो करम नसाई। जल में जैसे तंबा तिरै। परिच पिंड जीव नहिं मरै ।