पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२०१

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( १८७ ) जब लगि नदी न समुद्र समावै। तब लगि बढ़े हंकारा। जब मनमिल्यो राम सागर सों, तय यह मिटी पुकारा। रैदास। ३-एक बूंद जल कारने चातक दुख पावै । प्रान गये सागर मिलै पुनि काम न आवै ॥ प्रान जो थाके थिर नहीं कैसे बिरमाओं। बूड़ि मुये नौका मिलै कहु काहि चढ़ाओं ॥ मैं नाहीं कछु हौं नहीं कछु आहि न मोरा । औसर लज्जा राखिलेहु सदना जन तोरा ॥ सदना। ४-भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने तनु मनु धनु नहिं धीरे । लालच बिखु काम लुबध राता मन बिसरे प्रभु हीरे। विखु फल मीठ लगे मन बउरे चार विचार न जान्या । गुनते प्रीति बढ़ी अन भाँती जनम मरन फिर तान्या । जुगति जानि नहिं रिदै निवासी जलत जाल जम फंदपरे । विखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभु मन विसरे। ग्यान प्रवेसु गुरहिंधन दीया ध्यानु मानु मन एक भये । प्रेम भगतिमानी सुख जान्यात्रिपति अघाने मुकतिभये। जोति समाय समाने जाकै अछली प्रभु पहिचान्या। धन्न धन पाया धरणीधर मिलि जनसंत समान्या । धन्ना