पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२०५

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( १९१ ) मीठे को कडुआ २-गुरु परसादी बूझिले तउ होइ निबेरा । घर घर नाम निरंजना सो ठाकुर मेरा । यिनु गुरु सबद न छूटिये देखहु बीचारा । जे लख करम कमावहीं विनु गुरु अँधियारा । अंधे अकलो बाहरे क्या तिन सों कहिये। बिनु गुरु पंथ न सूझई किस विध निरयहिये । आक्त को जाता कहे जाते को आया । परकी को अपनी कहैं अपनो नहिं भाया । कहैं को मीठा । कडए राते की निन्दा करहिं ऐसा कलि महिं दीठा । चेरी की सेवा करहिं ठाकुरु नहिं दसै । पोखर नीरु बिरोलिये माखनु नहिं रीसै । इसु पद जो अरथाइ ले सो गुरू हमारा । नानक चीने आप को सो अपर अपारा । गुरु नानकदेव की मातृभाषा पंजाबी थी। इसके अतिरिक्त मुख्यतः पंजाब प्रान्त की हिन्दू जनता की जाति के लिये हो उनको धर्म क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इस लिये पंजाबी भाषा में उनकी अधिकांश रचनाओं का होना स्वाभाविक था। परन्तु जिस समय उनका आविर्भाव हुआ था उसकी यह विशेषता देखी जाती है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त के हिन्दू धर्म प्रचारक ओर सुकवि हिन्दी भाषा को ओर आकर्पित हो रहे थे । यदि बंगाल प्रान्त के चण्डीदास और बिहार प्रान्त के विद्यापति हिन्दी भाषा को अपनी रचनाओं में स्थान देने के लिये आकर्षित हुये तो महाराष्ट्र प्रान्त में नामदेव जी को भी तत्कालिक हिन्दी भाषा में उत्तमोत्तम धार्मिक रचनायें करते देखा जाता है। ऐसी अवस्था में गुरु नानक देव जी का भी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट होना आश्चर्यजनक नहीं । उनके इसो