पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२०९

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उनका पिता; वे उसकी प्रेमिका बनते और वह उनका प्रेमी। वे नरक और आवा गमन से भीत हो कर उसकी शरण में जाते हैं और वह उद्धारक बन कर उनका उद्धार करता है। वे कहते हैं कि वह बिपत्ति में त्राण देता है भवसागर से पार करता है और अशरण का शरण बनता है और इन बातों को पौराणिक आख्यानों और उदाहरणों-द्वारा प्रमाणित करते हैं। जब वे और ऊँचा उठते हैं तो उसको सर्व जगत में व्याप्त पाते हैं और विश्व की विभूतियों में नाना रूपों में उसे विकसित देख कर अलौकिक आनन्द का अनुभव करते हैं। कभी जब आत्मविश्वास का उदय होता है तब वह आत्मज्ञान अथवा आत्मा ही में परमात्मा के देखने का उद्योग करते हैं और कभी समाधि में बैठ कर योग के अनेक साधनों द्वारा ब्रह्मानन्द-सुख-भोगी बनते हैं। कभी मुक्ति की कामना करते हैं कभी मुक्ति को तुच्छ गिन कर भगवद्भक्ति को ही प्रधानता देते हैं। कभी संकेत और इंगितों द्वारा लोकातीत को अलौकिकता बतलाने में रत देखे जाते हैं. कभी अनिर्वचनीय की अनिर्वचनीयता देख मौनता-मंत्र ग्रहण करना ही समुचित समझते हैं। सारांश यह कि निगुण और सगुण के विषय में जो विचार-परम्परा पुराण वादियों और वेदान्तियों की देखी जाती है पद पद पर वे उसी का अनुसरण करते दृष्टि गत होते हैं। कोई पुराण ऐसा नहीं है जिसमें परमात्मा का वर्णन इसी रूप में न किया गया हो। पुराणों का सगुणवाद जैसा प्रबल है वैसा ही निगुणवाद भी। वे भी वेदान्त के भावों से प्रभावित हैं और वैष्णव पुराणों में उसका बड़ा हो हृदयग्राही विवेचन है। परन्तु वे जानते हैं कि निगुणवाद के तत्वों का समझना कतिपय तत्वज्ञों का ही काम है। इस लिये उनमें सगुणावाद का ही विस्तार है, क्योंकि वह बोध-सुलभ है। विना उपासना किये उपासक सिद्धि नहीं पाता। उपासना-सोपान पर चढ़ कर ही साधक उस प्रभु के सामीप्य-लाभ का अधिकारी बनता है जो ज्ञान-गिरा-गोतीत है। उपासना के लिये उपास्य को प्रयोजनीयता अविदित नहीं। यदि उपास्य अचिन्तनीय अव्यक्त, अथवा ज्ञान का विषय नहीं तो उसमें भावों का आरोप नहीं हो